Author: कविता बहार

  • गरीबी का घाव

    गरीबी का घाव


    आग की तपिस में छिलते पाँव
    भूख से सिकुड़ते पेट
    उजड़ती हुई बस्तियाँ
    और पगडण्डियों पर
    बिछी हैं लाशें ही लाशें
    कहीं दावत कहीं जश्न
    कहीं छल झूठे प्रश्न
    तो कहीं ….


    आलीशान महलों की रेव पार्टियाँ
    दो रोटी को तरसते
    हजारों बच्चों पर
    कर्ज की बोझ से दबे
    लाखों हलधरों पर
    और मृत्यु से आँखमिचोली करते
    श्रमजीवी करोड़ों मजदूरों पर
    शायद! आज भी ….

    किसी की नज़र नहीं जाती
    वक़्त है कि गुजर जाता है
    लेकिन गरीबी का ये ‘घाव’
    कभी भरता ही नहीं ।

    – प्रकाश गुप्ता ”हमसफ़र”
    राज्य – छत्तीसगढ़
    मोबाईल नम्बर – 7747919129

  • ये  शहर हादसों का शहर हो न जाए

    हादसों का शहर

    ये  शहर  हादसों  का  शहर  हो न जाए।
    अमन पसंद लोगों पर कहर हो न जाए।।
    न  छेड़  बातें  यहां  राम  औ  रहीम की,
    हिन्दू  और  मुसलमां  में बैर हो न जाए।।
    अमृत  सा  पानी  बहे  इन दरियाओं  में,
    आबो हवा बचाओ सब जहर हो न जाए।।
    गोलियों की  आवाजें सुन  ही  जाती  हैं,
    पूरी  इन्सानियत  ही  ढेर  हो  न   जाए।।
    सूरज  की  पहली  किरण  का  पैगाम है,
    जल्दी  उठ  के  सुनो दोपहर हो न जाए।।
    सिल्ला’  तूं  अपने  विचार  खुले   रखना,
    संकीर्णता  में  अपने  गैर  हो   न   जाए।।
    -विनोद सिल्ला

  • अब्र के दोहे

    अब्र के दोहे

    मस्ताया मधुमास है, गजब दिखाए रंग।
    फागुन बरसे टूटकर, उठता प्रीत तरंग।।

    लाया फूल पलाश का, मस्त मगन मधुमास।
    सेमल-सेमल हो गया, फागुन अबके खास।।

    काया नश्वर है यहाँ, मत भूलें यह बात।
    कर्म अमर रहता सदा, भाव जगे दिन रात।।

    सार्वजनिक जीवन सदा, भेद भाव से दूर।
    जिनका भी ऐसा रहा, वो जननायक शूर।।

    होली में इस बार हम, करें नया कुछ खास।
    नर नारी दोनों सधे, पगे प्रेम उल्लास।।

    होंली के हुड़दंग में, रखें सदा यह याद।
    अक्षुण्ण नारी मान हो, सम्मानित सम्वाद।।

    धूम मचाएँ झूम के, ऐसा खेलें फाग।
    जीवन में खुशियाँ घुले, पगे प्रेम अनुराग।।

    हर्षित अम्बर है यहाँ, भू पुलकित है आज।
    सतरंगे अहसास से,, उड़ी हुई है लाज।।

    जपें नाम प्रभु राम का, इसका अटल विधान।
    तारक ईश्वर हैं यही, सद्गति के सन्धान।।

        सम्यक ईश्वर की नजर, रचता रहे विधान।
    सुख दुख दोनो ही दिये, माया जगत वितान।।

      निर्णय ईश्वर का हुआ, सदा बहुत ही नेक।
    अज्ञानी समझे नहीं, समझा वही विवेक।।  

    काव्य सुधा रस घोलती, समझ सृजन का मर्म ।
    सम्बल हे माँ शारदे, अभिनन्दन कवि कर्म ।।  

    वैचारिकता शून्य जब, यत्र तत्र हो तंत्र।
    सकारात्मक सोच सदा, खुश जीवन का मंत्र।।

      गहरी काली रात में, सूझे नहीं उपाय ।
    करें प्रात की वंदना, करता ईश सहाय ।।  

    अहा अर्चना हम करें, नित्य प्रात के याम ।
    भूधर का उत्तुंग शिखर , है भोले का धाम ।।  

    वाणी संयम से मिले, सामाजिक सम्मान।
    तोल मोल बोली सदा, रखे आपका मान।।  

    नदियाँ ममता बाँटती, ज्यों माता व्यवहार।
    पालन पोषण ये करे, गाँव शहर संसार।।  

    सच जिंदा ईमान भी, लोगों को है आस।
    आया जब भी फैसला, तब जीता विश्वास।।

    कहे जनवरी नित्य ही, खोलो सारे बन्ध।
    प्रेम दिसम्बर तक बढ़े, बिना किसी अनुबन्ध।।


    राजेश पाण्डेय अब्र
       अम्बिकापुर


  • जीवन यही है

    जीवन यही है

    मार्च के महीने में
    देखता हूँ बिखरे पत्ते धरती की छाती पर
    रगड़ते घिसते
    हवा की सरसराहट के संग
    खर्र खर्र की आवाज बिखरती हैं कानों में
    यत्र तत्र
    टहनियों से अलग होने के बाद
    मृत प्रायः, काली पीली काया बिखरे पत्तों की…
    छोड़ती है अपनी अमिट छाप
    उम्रदराज हो जाते हैं
    आदमी की तरह..सूखे पत्ते
    हरितिमा नहीं रहती जब कायम
    वसंत ऋतु के बाद
    मदमस्ती करते…निरंतरता में बहते…
    अफसोस नहीं, नहीं कोई अवसाद
    पत्तों के तन पर
    जीवन के बाद मरण तो हैं तय
    फिर क्यों बहायें आंसू
    नई कोंपलों को जैसे बुलावा देते से
    हताश नहीं, प्रसन्न हो रहे हैं
    जवानी हमेशा जवान नहीं रहती
    स्नेह की धारा
    इन पत्तों की अब बहती हैं धरती की मिट्टी संग
    ढांप लेते हैं
    धरती का शरीर सारा
    कदमताल करते
    बारिश संग फिर सीखेंगे घुलना मिलना
    वो ले आयेगी
    उन पीले पड़े पत्तों को कब्र तक
    जहाँ पर
    सहजता से टिकना चाहते हैं
    ताकि मिल सके पुनर्जन्म
    मिट्टी को…
    खाद बनकर
    फिर सींचते हैं… उस हलधर का खेत…
    विटामिन, प्रोटीन, खनिज लवण प्रदान करते
    फसलों को…
    नई स्फूर्ति, नई ताजगी ,नया उल्लास, नई उमंग भरते…
    खिलखिलाते…
    कब्र की उस शांत मिट्टी में…
    निद्रा पूरी करते…
    लहलहाती हैं वनस्पतियां, फसलें…
    बहार आती हैं
    फैल जाती हैं हरितिमा चंहुओर
    किसान की मेहनत को और रंग जाते
    ये टूटे फूटे,कटे फटे…
    लहूलुहान से पत्ते…अश्रुधारा नहीं बहती फिर भी
    नये जोश के साथ…. जमीन में से..
    अन्न की पैदावार को बढ़ाते…
    जीव जगत को हर्षाते…
    बेकार नहीं…
    प्रकृति के विधान के साथ…
    कदमताल करते करते…
    कवि के कवित्व में उभरते….
    मौन ही सही…
    लेकिन इनके मौन होने का भी अर्थ है…
    नवजीवन…नवगाथा…नवीन कोई राह
    जिस पर…
    चलकर…
    आदमी ही नहीं…
    तैर जायेगी ये प्रकृति
    पार कर लेगी भवसागर…
    जीवन यही है…
    जन्म यही है… मरण यही है…
    चक्र यही है…
    यही है…
    स्पंदन गिरे पत्तों के हृदय का….।
    धार्विक नमन, “शौर्य”,डिब्रूगढ़, असम,मोबाइल 09828108858
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  • महादेवी वर्मा पर कविता

    महादेवी वर्मा पर कविता

    mahadevi-verma

    हिंदी मंदिर की सरस्वती,
    तुम हिंदी साहित्य की जान।
    छायावादी युग की देवी,
    महादेवी महिमा बड़ी महान।।
    दिया धार शब्दों को,
    हिंदी साहित्य है बतलाता।
    दिव्य दृष्टि दी भारत को,
    साहित्य तुम्हारा जगमगाता।।
    प्रेरणास्रोत कलम की तुम,
    हो दर्पण झिलमिलाता।
    दशा दिशा इस भारत की,
    जो सबकुछ है दिखलाता।।
    करुणामयी करुणा की देवी,
    नारियों की तुम माता।
    निवलों,विकलों,दुखियों की,
    तुम हो आधार दाता।।
    जीव जंतु प्रेमिका तुम,
    हो आधुनिक मीरा रूप।
    करने कायापलट जहां का,
    छांव देखी न देखी धूप।।
    अनुपम,अलौकिक,शब्दावली,
    तुम हिंदी की शान।
    युगों युगों तक हिंदी साहित्य,
    करता रहेगा अभिमान।।
    महादेवी वर्मा नाम,
    हर कलमकार दुहराता।
    प्राण वायु वह छायावादी,
    लगती हिंदी विधाता।।
    बंगला और संस्कृत शब्दों को,
    पहनाया हिंदी जामा।
    संगीत विधा मे पारंगत,
    चित्रकारी का असीम खजाना।।
    प्रतिमूर्ती दुख दर्द की,
    ज्ञाता दे संगीत सुर झंझनाना।
    छू के मन के तारों को,
    छेड़ा जिसने दर्द का तरना।।
    इंदुरानी, उत्तर प्रदेश
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