1 बाहें फैलाये मांग रही दुआएँ, भूल गया क्या मेरी वफ़ाएँ! ओ निर्मोही मेघ! इतना ना तरसा, तप रही तेरी वसुधा अब तो जल बरसा!
2 बूंद-बूंद को अवनी तरसे, अम्बर फिरभी ना बरसे! प्यासा पथिक,पनघट प्यासा प्यासा फिरा, प्यासे डगर से! प्यासी अँखिया पता पूछे, पानी का प्यासे अधर से! बूंद-बूंद को अवनी तरसे अम्बर फिरभी ना बरसे!
3 प्रदूषण से कराहती, शांत हो गई है! कहते हैं नदी अपना पानी पी गई है! चंचल थी बहुत, उदास हो गई है! नक्शे में जाने कहाँ अब खो गई है! नदी शांत हो गई है! बादलों की ओर, आस लगाये रहती है, कलकल बहती थी, अब धूल उड़ाया करती है! प्यासी बरसातें उसकी, उम्मीदें धो गई हैं!
नदी शांत हो गई है!
डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’ अम्बिकापुर(छ. ग.) कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
धरती का जो स्वर्ग था, बना नर्क वह आज। गलियों में कश्मीर की, अब दहशत का राज।। भटक गये सब नव युवक, फैलाते आतंक। सड़कों पर तांडव करें, होकर के निःशंक।। उग्रवाद की शह मिली, भटक गये कुछ छात्र। ज्ञानार्जन की उम्र में, बने घृणा के पात्र।। पत्थरबाजी खुल करें, अल्प नहीं डर व्याप्त। सेना का भी भय नहीं, संरक्षण है प्राप्त।। स्वारथ की लपटों घिरा, शासन दिखता पस्त। छिन्न व्यवस्थाएँ सभी, जनता भय से त्रस्त।। खुल के पत्थर बाज़ ये, बरसाते पाषाण। देखें सब असहाय हो, कहीं नहीं है त्राण।। हाथ सैनिकों के बँधे, करे न शस्त्र प्रयोग। पत्थर बाज़ी झेलते, व्यर्थ अन्य उद्योग।। सत्ता का आधार है, तुष्टिकरण का मंत्र। बेबस जनता आज है, ‘नमन’ तुझे जनतंत्र।। बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ तिनसुकिया कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
वो मुझे याद आता रहा देर तक, मैं ग़ज़ल गुनगुनाता रहा देर तक उसने पूछी मेरी ख़ैरियत वस्ल में मैं बहाने बनाता रहा देर तक उसने होठों में मुझको छुआ इस तरह ये बदन कँपकपता रहा देर तक उसके दिल में कोई चोर है इसलिये मुझसे नज़रे चुराता रहा देर तक भूख़ से मर गया फिर यहाँ इक किसान अब्र आँसू बहाता रहा देर तक मेरे हिस्से में जो ग़म पड़े ही नहीं शोक उनका मनाता रहा देर तक
जो शख़्स जान से प्यारा है पर करीब नहीं उसे गले से लगाना मेरा नसीब नहीं
वो जान माँगे मेरी और मैं न दे पाऊँ ग़रीब हूँ मैं मगर इस क़दर ग़रीब नहीं
हसीन चेहरों के अंदर फ़रेब देखा है मेरे लिए तो यहाँ कुछ भी अब अजीब नहीं
जो बात करते हुए बारहा चुराए नज़र तो जान लेना कि वो शख़्स अब हबीब नहीं
जिसे हुआ हो यहाँ सच्चा इश्क वो ‘चंदन’ बिछड़ भी जाएं अगर, तो भी बदनसीब नहीं
चन्द्रभान ‘चंदन’ रायगढ़, छत्तीसगढ़
भला इस मौत से ‘चंदन’ कोई कैसे मुकर जाए
करूँ तफ़सील अगर तेरी तो हर लम्हा गुज़र जाए, तुझे देखे अगर जी भर कोई तो यूँ ही मर जाए.. यहाँ हर शख्स मेरे दर्द की तहसीन करता है, भरे महफ़िल से शाइर उठ के जाए तो किधर जाए.. हर इक दिन काटना अब बन गया है मसअला मेरा, तेरे पहलूँ में बैठूँ तो मेरा हर ज़ख्म भर जाए.. यही सोचा था पागल ने बिछड़कर टूट जाऊँगा, अभी ज़िंदा है मेरा हौसला उस तक ख़बर जाए.. इरादा क़त्ल का हो और आँखों में मुहब्बत हो, भला इस मौत से ‘चंदन’ कोई कैसे मुकर जाए..
सियासत है, सियासत है.._ _मुझे तुम याद आती हो, शिकायत है, शिकायत है.._ _जिधर देखूं तुम्ही तुम हो, मुहब्बत है, मुहब्बत है.._ _तेरे रुखसार का डिम्पल, कयामत है, कयामत है.._ _मिरे खाबों में आती हो, शरारत है, शरारत है.._ _नहीं करता तुम्हें बदनाम, शराफ़त है, शराफ़त है.._ _मुझे बर्बाद करके वो, सलामत है, सलामत है.._ _तुम्हें मैं किस तरह भूलूँ, ये आदत है, ये आदत है.._ _तुम्हारे ख़ाब हो पूरे, इबादत है, इबादत है.._
(1) प्रातः जागो भोर में , लेके हरि का नाम । मातृभूमि वंदन करो , फिर पीछे सब काम ।। फिर पीछे सब काम , करो तुम दुनियादारी । अपनाओ आहार , शुद्ध ताजे तरकारी ।। कह ननकी कविराज , मांस ये मदिरा त्यागो । देर रात मत जाग , हमेशा प्रातः जागो ।।
(2) दीपक चाहे स्वर्ण का , या फिर मिट्टी कोय । उसकी कीमत जोत है , कितना उजाला होय ।। कितना उजाला होय , अँधेरा रहता कितना । गरीब अमीर मित्र , . भले हो चाहे जितना ।। कह ननकी कविराज, बनो मत कोई दीमक । गर्वित हो संबंध , जलो बन के तुम दीपक ।। ~ रामनाथ साहू ” ननकी “ मुरलीडीह (छ. ग.)