Author: कविता बहार

  • वृंदावन की होली पर कविता

    वृंदावन की होली पर कविता

    पकड़ कलाई  रंग ड़ार दियो हाय भीगी मोरी चुनरिया ।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    ग्वाल सखाओं  की  लेकर  टोली
    कान्हा आगये   खेलन होली
    देख कर मोहे निपट अकेली
    करने लगे कान्हा जोरा जोरी
    मैं शरमाऊँ ड़र ड़र जाऊँ न छोड़े मोरी कलइयां।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    वृंदावन होली खेलन आई
    रंग लो चाहे  जितना कन्हाई
    तेरे नाम की  मैं   हूँ दीवानी
    मैं तो हूँ  मीरा    मस्तानी
    तन मन प्राण रंगे  तेरे रंग में छूटे न सारी उमरिया ।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    भाये मोहे तेरे लट  घुंघराले
    मन मोहन वो मुरली वाले
    जीवन नैया अब तेरे हवाले
    चाहे डुबादे चाहे संभाले
    प्रीत के रंग में डूब गई हूँ थाम लो अब तो बहियाँ ।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।।
    कान्हा जरा मुरली तो सुनादो
    ले हाथों में हाथ वृन्दावन घुमादो
    यमुना तट पे झूला झुलादो
    कान्हा  मेरी यह आस पुरादो ।
    चरणों में प्रभू अपनी लगालो रंग रंगीला सांवरिया ।।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    श्याम रोके मोरी डगरिया ।
    पकड़ कलाई रंग ड़ारी गुलाबी भीगे मोरी चुनरिया ।
    श्याम-
    केवरा यदु “मीरा “
    राजिम
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  • मिल मस्त हो कर फाग में

    मिल मस्त हो कर फाग में

    सब झूम लो रस राग में।
    मिल मस्त हो कर फाग में।।
    खुशियों भरा यह पर्व है।
    इसपे हमें अति गर्व है।।
    यह मास फागुन चाव का।
    ऋतुराज के मधु भाव का।।
    हर और दृश्य सुहावने।
    सब कूँज वृक्ष लुभावने ।।
    मन से मिटा हर क्लेश को।
    उर में रखो मत द्वेष को।।
    क्षण आज है न विलाप का।
    यह पर्व मेल-मिलाप का।।
    मन से जला मद-होलिका।
    धर प्रेम की कर-तूलिका।।
    हम मग्न हों रस रंग में।

    सब झूम फाग उमंग में।।

    लक्षण छंद
    “सजजाग” ये दश वर्ण दो।
    तब छंद ‘संयुत’ स्वाद लो।।
    “सजजाग” = सगण जगण जगण गुरु
    112 121 121 2 = 10 वर्ण
    चार चरण। दो दो समतुकांत


    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया
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  • होलिका दहन पर हिंदी कविता / पंकज प्रियम

    होलिका दहन पर हिंदी कविता / पंकज प्रियम

    होलिका दहन पर हिंदी कविता / पंकज प्रियम

    holika-dahan
    holika-dahan

    बुराई खत्म करने का प्रण करें
    आओ फिर होलिका दहन करें।
    औरत की इज्जत का प्रण करें,
    आओ फिर होलिका दहन करें।

    यहां तो हर रोज जलती है नारी
    दहेज कभी दुष्कर्म की है मारी
    रोज कोई रावण अपहरण करे
    पहले इनका मिलकर दमन करे
    आओ फिर…..

    हर घर प्रह्लाद सा कुंठित जीवन
    मां बाप के सपनों मरता बचपन
    होटलो में मासूम धो रहा बरतन
    पहले तो इन मुद्दों का शमन करें
    आओ फिर …

    सरहद पे रोज चलती है गोली
    पहियों तले कुचलती है बोली
    भूख कर्ज में रोती जनता भोली
    पहले इतने बोझ को वहन करें
    आओ फिर …

    आओ फिर होलिका दहन करे
    आओ फिर होलिका दहन करें।

    पंकज प्रियम

  • होली के दोहे – बासुदेव अग्रवाल

    होली के दोहे – बासुदेव अग्रवाल

    होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली रंगों का तथा हँसी-खुशी का त्योहार है। यह भारत का एक प्रमुख और प्रसिद्ध त्योहार है, जो आज विश्वभर में मनाया जाने लगा है। विकिपीडिया

    होली के दोहे – बासुदेव अग्रवाल

    Radha kishna holi
    mohan radha holi

    होली के सब पे चढ़े, मधुर सुहाने रंग।
    पिचकारी चलती कहीं, बाजे कहीं मृदंग।।

    दहके झूम पलाश सब, रतनारे हो आज।
    मानो खेलन रंग को, आया है ऋतुराज।।

    होली के रस की बही, सरस धरा पे धार।
    ऊँच नीच सब भूल कर, करें परस्पर प्यार।।

    फागुन की सब पे चढ़ी, मस्ती अपरम्पार।
    बाल वृद्ध सब झूम के, रस की छोड़े धार।।

    वृन्दावन में जा बसूँ, मन में नित ये आस।
    फागुन में घनश्याम के, रहूँ सदा मैं पास।।

    माथे सजा गुलाल है, फूलों का श्रृंगार।
    वृन्दावन के नाथ पर, तन मन जाऊँ वार।।

    नर नारी सब खेलते, होली मिल कर संग।
    भेद भाव कुछ नहिं रहे, मधुर फाग का रंग।।

    फागुन में मन झूम के, गाये राग मल्हार।
    मधुर चंग की थाप है, मीठी बहे बयार।।

    घुटे भंग जब तक नहीं, रहे अधूरा फाग,
    बजे चंग यदि संग में, खुल जाएँ तब भाग।।

    होली की शुभकामना, रहें सभी मन जोड़।
    नशा यहाँ ऐसा चढ़े, कोउ न जाये छोड़।।

    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया


     

  • ऋतु बसंत आ गया

    ऋतु बसंत आ गया


              बिखरी है छटा फूलों की,
              शोभा इंद्रधनुषी रंगों की,
              कोयल की कूक कर रही पुकार,
              ऋतु बसंत आ गया,
              आओ मंगल-गान करें।
    महुए के फूलों की मदमाती बयार,
    आम्र मंजरी की बहकाती मनुहार,
    सुरमई हुए जीवन के तार,
    ऋतु बसंत आ गया,
    आओ मंगल-गान करें।
                 महकी सी लगती है हर गली,
                 कुसुमित हर्षित है हर कली,
                 आनन्दित है सब संसार,
                 ऋतु बसंत आ गया,
                 आओ मंगल-गान करें।।
    सरसों के पीले बासंती रंग से,
    टेसू-पलाश की लालिमा लिए,
    मौसम ने किया श्रृंगार ,
    ऋतु बसंत आ गया,
    आओ मंगल-गान करें।।
                       हर्ष में मग्न जनजीवन सारा,
                       पुलकित है घर आंगन प्यारा,
                       भँवरे करने लगे गुंजार,
                       ऋतु बसंत आ गया,
                       आओ मंगल-गान करें ।।     
    दुःख के बाद सुख का आना,
    पतझड़ के बाद बसंत का आना,
    कहता है जीवन का सार,
    ऋतु बसंत आ गया ,
    आओ मंगल-गान करें।
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        पूर्णिमा सरोज
       (व्याख्याता रसायन)
          जगदलपुर(छ. ग.)
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