बोझ पर कविता
कभी कभी
कलम भी बोझ लगने लगती है
जब शब्द नहीं देते साथ
अंतरभावों का
उमड़ती पीड़ायें दफन हो जाती
भीतर कहीं
उबलता है कुछ
धधकता है
ज्वालामुखी सी
विचारों के बवंडर
भूकंप सा कंपाते है
मन मस्तिष्क को
और सारे तत्वों के बावजूद
मन अकेला हो जाता है
उस माँ की तरह
जो नौ महीने सहर्ष
भार ढोती ।
उस पिता की तरह
जो कंधे और झुकती कमर तक
जिम्मेदारी उठाता
पर
वक्त के दौर में उपेक्षित हो
अपनी ही संतति को बोझ लगते हैं ।
तब शब्द कफन ओढ़ लेते है
और टूट जाती है नोक कलम की
संवेदनाओं के सूखते
स्याही
कलम को बोझिल कर देते हैं ।
सुधा शर्मा राजिम छत्तीसगढ़