गरमी महीना छत्तीसगढ़ कविता
किंदर किंदर के आवथें बड़ेर,
“धुर्रा-माटी-पैरा-पान” सकेल।
खुसर जाय कुरिया कोती अन,
लकर-लकर फेरका ल धकेल।
हव! आगे ने दिन बिन-बूता पसीना के।
ए जम्मो चिन्हा हावे गरमी महीना के।।
डम-डम डमरू बजावत,आवत हे ठेलावाला।
रिंगी-चिंगी चुसकी धरे,दिखत हे भोलाभाला।
लईका कूदे देखके ओला।
पईसा दे दाई जल्दी से मोला।
अऊ दाई देय चाउर,भर-भर गीना के।
ए जम्मो चिन्हा हावे गरमी महीना के।।
सुटूर-साटर घूमत घामत,
लईका कहत आथें-“ए माँ!”
सील-लोड़हा म नून-मिरचा पीसदे
कुचरके खाहा कइचा आमा।
अऊ ताश खेले मंझनिया पहाये।
तरिया म डुबकत संझा नहाये।
नोनी-बाबू के सुध नईये खाना-पीना के।
ए जम्मो चिन्हा हावे गरमी महीना के।।
मोहरी बाजत हे कनहू कोती,
अऊ डीजे म छत्तीसगढ़ी गाना।
बर-बिहा के सीजन आगिस
मौजमस्ती म बेरा पहाना।
गंवई घूमे बर नवा कुरता सिलात हें।
घाम बाँचे बर टोपी-चसमा बिसात हें।
फैन्सी समान के गादा होगे हसीना के।
ए जम्मो चिन्हा हावे गरमी महीना के।।
(रचयिता :-मनी भाई,
भौंरादादर,बसना,महासमुन्द)
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