Category: हिंदी कविता

  • हे महिषासुर मर्दिनी

    हे महिषासुर मर्दिनी

    हे महिषासुर मर्दिनी ! 
    आज फिर धरा पर आना होगा , 
    नारी के मान , नारी की गरिमा का
    वसन फिर बचाना होगा ,
    छिपे बैठे है असुर कितने
    मच्छरों सदृश मौकापरस्त कितने ,
    ढूंढ-ढूंढ कर उन दुश्शासनों को
    मिट्टी में मिलाना होगा , 
    हे महिषासुर मर्दिनी ! 
    आज फिर …………
    हे नारी ! समय नही अब रोने का
    इतिहास गवाह है और नही अब खोने का, 
    बेशक स्नेह – त्याग की प्रतिमूर्ति तुम
    वक्त पड़े तो रूप विकराल धरती तुम , 
    हे मां कालिके ! हे मां चंडिके ! 
    हे मां शारदे ! हे मां भद्रिके ! 
    आओ माते कर के सिंह की सवारी
    हे आदिशक्ति ! रग-रग बसों , पड़ूं दुर्जनों पे भारी , 
    वजुद निज का पहचानों हे जननी !
    निज आन की लड़ाई तुमको ही लड़नी ,
    संभल जाओ रे तुच्छ पशुता के बंदे , 
    निश्चित ही अब दूर नही तेरे काल के फंदे, 
    एक-एक नारी अब अवतार धरेगी 
    चुन-चुन कर असुर धड़ अलग  करेगी, 
    तेरी आसुरी दुनिया में तब हाहाकार  मच जायेगा
    भाल तेरा जब तुझको ही चढ़ाया जायेगा ,
    तुम साथ हो न , हे  मां भवानी ! 
    गिन-गिन कर सबक सिखाना होगा ,
    जिन निकृष्टों ने  मां – भगिनी का अपमान किया
    उन दृष्टि पतितों को भस्मिभूत कराना होगा ,
    हे महिषासुर मर्दिनी ! 
    आज फिर धरा पर आना होगा ।

    जितेश्वरी साहू सचेता
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  • आओ चले गाँव की ओर-रीतु देवी

    आओ चले गाँव की ओर-रीतु देवी

    आओ चले गाँव की ओर

    आओ चले गाँव की ओर-रीतु देवी

    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन ओर
    रस बस जाए गाँव में ही,
    स्वर्ग सी अनुभूति होती यहीं।
    खुला आसमाँ, ये सारा जहाँ
    स्वछंद गाते, नाचते भोली सूरत यहाँ।
    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन ओर
    आमों के बगीचे हैं मन को लुभाते,
    फुलवारियाँ संग-संग हैं सबको झूमाते ,
    झूम-झूम कर खेतों में गाते हैं फसलें,
    मदहोश सरसों संग सब गाते हैं वसंती गजलें।
    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन ओर
    संस्कारों का निराली छटा है हर जहाँ,
    नये फसलें संग त्यौहार मिलकर मनाते यहाँ।
    प्यारी बोलियाँ ,मधुर गाने गूँजते कानों में
    स्वर्णिम किरणें चमकते दैहिक खानों में
    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन ओर
    एकता सूत्र में बंधे हैं सब जन,
    भय, पीड़ा से उन्मुक्त है सबका अन्तर्मन।
    पुष्प सा जनमानस जाते हैं खिल यहाँ,
    वर्षा खुशियों की होती हैं हर पल यहाँ।
    आओ चले गाँव की ओर
    गाँव की मिट्टी बुलाती उन्मुक्त गगन  ओर

    रीतु देवी
            दरभंगा, बिहार
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  • विश्वास की परिभाषा – वर्षा जैन “प्रखर”

    विश्वास की परिभाषा

    विश्वास एक पिता का

    कन्यादान करे पिता, दे हाथों में हाथ
    यह विश्वास रहे सदा,सुखी मेरी संतान। 
    योग्य वर सुंदर घर द्वार, महके घर संसार
    बना रहे विश्वास सदा, जग वालों लो जान।

    विश्वास एक बच्चे का

    पिता की बाहों में खेलता, वह निर्बाध निश्चिंत
    उसे गिरने नहीं देंगे वह, यह उसे स्मृत। 
    पिता के प्रति बंधी विश्वास रूपी डोर
    हर विषम परिस्थिति में वे उसे संभालेंगे जरूर।

    विश्वास एक भक्त का

    आस्था ही है जो पत्थरों को बना देती है भगवान
    जब हार जाए सारे जतन,तो डोल उठता है मन। 
    पर होती है एक आस इसी विश्वास के साथ
    प्रभु उबारेंगे जरूर चाहे दूर हो या पास।

    विश्वास एक माँ का 

    नौ माह रक्खे उदर में, दरद सहे अपार
    सींचे अपने खून से, रक्खे बड़ा संभाल। 
    यह विश्वास पाले हिय मे, दे बुढ़ापे में साथ
    कलयुग मे ना कुमार श्रवण, भूल जाए हर मात।

    विश्वास डोर नाजुक सदा
    ठोकर लगे टूटी जाए। 
    जमने में सदियों लगे
    पल छिन में टूटी जाये। 
    रखो संभाले बड़े जतन से
    टूटे जुड़ ना पाये।


    वर्षा जैन “प्रखर”

    दुर्ग (छ.ग.) 

    7354241141

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  • आदि भवानी-रामनाथ साहू ” ननकी ”                  

    दुर्गा या आदिशक्ति हिन्दुओं की प्रमुख देवी मानी जाती हैं जिन्हें माता, देवीशक्ति, आध्या शक्ति, भगवती, माता रानी, जगत जननी जग्दम्बा, परमेश्वरी, परम सनातनी देवी आदि नामों से भी जाना जाता हैं।शाक्त सम्प्रदाय की वह मुख्य देवी हैं। दुर्गा को आदि शक्ति, परम भगवती परब्रह्म बताया गया है।

    durgamata

    आदि भवानी

    नवदुर्गा नव रूप है ,
                          नित नव पुण्य प्रकाश ।
    साधक जन के हृदय से ,
                          तम मल करती नाश ।।
    तम मल करती नाश ,
                      विमलता से मति भरती ।
    उज्ज्वल सतत् भविष्य ,
                       नाश दुर्गुण का करती ।।
    कह ननकी कवि तुच्छ ,
                       अरे मन माँ के गुण गा ।
    अद्भुत शक्ति अनंत
                            संघ हैं श्री नवदुर्गा ।।

                   ~  रामनाथ साहू ” ननकी “

                                 मुरलीडीह

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  • सुलोचना परमार उत्तरांचली की कविता

    सुलोचना परमार उत्तरांचली की कविता

    तो मैं क्या करूँ ?

    आज आसमाँ भी रोया मेरे हाल पर
    और अश्कों से दामन भिगोता रहा,
    वो तो पहलू से दिल मेरा लेकर गये
    और मुड़कर न देखा तो मैं क्या करूँ ?


    उनकी यादें छमाछम बरसती रहीं
    मन के आंगन को मेरे भिगोती रहीं
    खून बनकर गिरे अश्क रुख़सार पर,
    कोई पोंछे न आकर तो मैं क्या करूँ ?


    में तो शम्मा की मानिंद जलती रही,
    रात हो ,दिन हो, याके हो शामों सहर,
    जो पतंगा लिपटकर जला था कभी,
    चोट खाई उसी से तो मैं क्या करूँ ?


    जब भी शाखों से पत्ते गिरे टूट कर
    मैने देखा उन्हें हैं सिसकते हुए,
    यूँ बिछुड़ करके मिलना है सम्भव नहीँ,
    हैं बहते अश्कों के धारें तो मैं क्या करूँ ?

    जिनको पूजा है सर को झुका कर अभी ।
    वो तो सड़कों के पत्थर रहे उम्र भर,
    बाद मरने की पूजा हैं करते यहाँ
    है ये रीत पुरानी तो मैं क्या करूँ ?


    वो मेरी मैय्यत में आये बड़ी देर से
    और अश्कों से दामन भिगोते रहे
    जीते जी तो पलट कर न देखा कभी,
    वो बाद मरने के आये तो मैं क्या करूँ ?


    सुलोचना परमार “उत्तराँचली”

    रोटियां

    पेट की आग बुझाने को
    रहती हैं तैयार ये रोटियां।
    कितने सहे थे जुल्म कभी
    तब मिल पाई  थी रोटियां।

    सदियों से ही गरीब के लिए
    मुश्किल थीं रोटियां ।
    कोड़े मारते थे जमीं दार
    तब मिलती थीं रोटियां ।

    घरों में करवाई बेगारी
    कागजों में लगवाए अंगूठे
    तब जाके भीख में कही
    मिलती थी रोटियां ।

    अपनी आ न ,बान, शान
    बचाने को कुछ याद है।?
    राणा ने भी खाई थीं यहां
    कभी घास की रोटियां ।

    इतिहास को टटोलो 
    और गौर से देखो  ।
    गोरों ने भी हमको कब
    प्यार से दी थी ये रोटियां ।

    आज भी हैं हर जगह
    कुछ किस्मत के ये मारे
    जिनके नसीब में खुदा
    लिखता नही ये रोटियां।

    गोल, तंदूरी, रुमाली कई
    तरह की बनती ये रोटियां ।
    भूखे की तो अमृत बन 
    जाती हैं सूखी ये रोटियां ।

    महलों में रहने वालों को
    इसका इल्म नही होता।
    कभी भूख मिटाने को ही
    बेची जाती हैं बेटियां ।

    सुलोचना परमार “उत्तरांचली “