Category: हिंदी कविता

  • मुक्तिबोध: एक आत्मसातात्मक प्रयास

    मुक्तिबोध: एक आत्मसातात्मक प्रयास

    मुक्तिबोध: एक आत्मसातात्मक प्रयास

    मुक्तिबोध: एक आत्मसातात्मक प्रयास

    क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता
    अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…
    रूचि, संस्कार, आदत सब भिन्न होते हुए भी
    क्यों मुक्तिबोध से दूर हो नहीं पाता…
    क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता
    अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…
    क्यों बंजर दिल के खेत में
    आशाओं के बीज बो नहीं पाता…
    जज़्बातों का ज़लज़ला उठने पर भी आखिर क्यों मैं खुलकर रो नहीं पाता…
    क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता
    अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…
    क्यों अपने अंदर व्याप्त ब्रह्मराक्षस के मलिन दागों को धो नहीं पाता…
    मुझे कुरेदती, जर्जर करती स्मृतियों को चाहकर भी खो नहीं पाता…
    क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता
    अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…

    अंकित भोई ‘अद्वितीय’
           महासमुंद (छत्तीसगढ़)
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • जल से जीवन जगत चराचर

    जल से जीवन जगत चराचर

    जल पर कविता

    जल से जीवन जगत चराचर
    जल ही है जीवन और प्राण
    जल बिन अस्तित्व नहीं कोई
    हैं समक्ष  हमारे कई प्रमाण l


    जीवन का कोई काज न ऐसा
    जल बिन हो जाए जो पूरा
    धरती की क्या बात करें
    जल बिन अंबर भी है अधूरा l


    जल ही मनुज जीवन आधार
    जल ही प्रकृति का है सार
    जल से ही चलती है सृष्टि
    जल बिन जीवन का संहार l


    जल अनमोल जीवन में हमारे
    जल बिन वसुधा है ये सून
    रहीम महिमा लिख गए
    जल बिन न मोती मानुस  चून l


    जल है अपरिसीम धरा पर
    हर इक बूँद का फिर भी मोल
    नीर ज़रुरत है पल पल की
    नीर धरा पर है अनमोल l


    नदी तालाब पोखर कुएँ  के 
    जल का नहीं करें हम  दोहन
    शुष्क है सब कुछ जल बिना
    जल में  जीवन का सम्मोहन l


    जल की महिमा त्रैलोक्य  में
    जल है तो है ये सारा जहान
    धरती जल या वर्षा जल हो
    जल संरक्षण कार्य महान l


    जल बचाओ जीवन बचाओ
    जल से सिंचित सकल चराचर
    जल नहीं तो कल नहीं होगा
    जल से बरसे मेह धाराधर l


    प्यास बुझाता प्यासे की जल
    जल ही देता है  हरियाली
    भावी  पीढ़ी  के लिए बचा लो
    जीवन में रहेगी खुशहाली l

    कुसुम लता  पुन्डोरा
    आर के  पुरम
    नई दिल्ली

  • आओ हम सौगंध उठाएँ

    आओ हम सौगंध उठाएँ

    प्रेम, सौहार्द्र, भ्रातृत्व भाव की
    धरा पर अखंड ज्योति जलाएँ
    भेदभाव न हो  जाति धर्म का
    आओ  हम  सौगंध  उठाएँ l
    ईश्वर, अल्लाह, राम, रहीम की
    पूज्य धरा को  स्वर्ग  बनाएँ
    एक पिता हम सबका मालिक
    एकता  का  संदेश  फैलाएँ l
    ऊँच, नीच,मज़हब,संप्रदाय का
    भेदभाव  मुल्क  से  ही  हटाएँ
    अमन, शांति, चैन,  सुकून  का
    आओ  मिल कर बीड़ा उठाएँ l
    हिन्दू,  मुस्लिम,  सिक्ख, ईसाई
    धार्मिक भेद दिलों  से  मिटायें
    एक हैं  हम  सिर्फ  भारतीय हैं
    प्रेम की  लौ  दिलों  में  जलाएँ l
    नफ़रत, ईर्ष्या, द्वेष  भाव को
    जग के आँगन  से दूर  हटाएँ
    राम -रहीम  की पावन भू  को
    मोहब्बत, प्रेम से ज़न्नत  बनाएँ l
    चंद्र, सूर्य, हिम, सागर इक सबका
    फिर  मज़हब की  है क्यों धाराएँ
    गंगा, यमुना,सरस्वती सम पावन
    विचारों  को अपना  श्रेष्ठ  बनाएँ l
    आतंकवाद, भ्रष्टाचार को हम
    मिलजुलकर  समूल  मिटाएँ
    परस्पर स्नेह मशाल जलाकर
    मानवता  का  सूरज  चमकाएँ l
    कुसुम लता पुन्डोरा
    आर के पुरम
    नई दिल्ली
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • हमर गंवई गाँव

    हमर गंवई गाँव

    1 आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव
    गड़े नही अब कांटा खोभा
    तुंहर कुँवर पांव
    आबे आबे सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    2 गली गली के चिखला माटी
    वहु ह अब नंदागे।
    पक्की सड़क पक्का नाली
    हमरो गांव म छागे।
    लइका मन बर स्कूल खुलगे
    जगाथे गाँव के नाव।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गांव ।।

    3 नरवा खड़ म मील बनाहे
    बज -बजाथे खड़ ह।
    गोला गोला  पेड़ कटवाहे
    दिखे नहीं कोयली ह।
    कुँआ बउली कोन पूछे अब
    बोर खनागे गाँव।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    4 पहिली के जंगल ह छटागे
    बघुवा भालू ह भगागे
    गाय गरु के चारा ह सिराथे
    गउ ठान ह सकलागे
    नई मिले अब छपरी छानी
    नईहे खदर के छाँव ।।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू
    हमर गंवई गाँव।।

    5 मिलजुल के हमर गाँव मनाथे
    जम्मों तीज तिहार।
    भेदभाव ह घुरूवा म पटागे
    आथे सबके  काम।
    खेलत कमावत दिन ह पहाथे
    रतिया मया के छाँव।।
    आबे आबे ग सहरिया बाबू ते
    हमर गंवई गॉव।।

    माधुरी डड़सेना
    नगर पंचायत भखारा
    छ .ग.

  • बचपन पर कविता

    बचपन पर कविता

    चिलचिलाती हुई धूप में
    नंगे पाँव दौड़ जाना,
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
    माँ डांटती अब्बा फटकारते
    कभी-कभी लकड़ी से मारते
    भूल कर उस पिटाई को
    जाकर बाग में आम चुराना।
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
    या फिर छुपकर दोपहर में
    नंगे पाँव दबे-दबे से
    लेकर घर से कच्छा तौलिया
    गाँव से दूर नहर में नहाना।
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
    या पेड़ों पर चढ़-चढ़ कर
    झूलते डालों पर हिल डुलकर
    चमक होती थी आँखों में
    वो साथियों को वन में घुमाना।
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
    पढ़ाई लिखाई से निजात पाकर
    हंसते-खिलते और मुस्कुराकर
    गर्मियों की प्यारी छुट्टियों में
    नाना-नानी के यहाँ जाना।
    याद आता है वो बचपन
    याद आता है बीता जमाना।
                     -0-
    नवल पाल प्रभाकर “दिनकर”
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद