जलती धरती / भावना मोहन विधानी
वृक्ष होते हैं धरती का सुंदर गहना,
हरियाली के रूप में धरा ने इसे पहना
हरे भरे वृक्षों को काट दिया मनुष्य ने,
मनुष्य की क्रूरता का क्या कहना?
तेज गर्मी से जलती जा रही धरती,
अंदर ही अंदर वह आहे हैं भरती,
कौन सुनेगा अब पुकार उसकी
मनुष्य जाति उसके लिए कुछ नहीं करती।
पेड़ों को काट भवन बनाए जा रहे हैं,
शहर धरती की सुंदरता को खा रहे हैं,
आधुनिकरण से धरती बंजर हो गई,
मनुष्य सारे चैन की नींद में सो रहे हैं।
अभी वक्त है नींद से जाग जाओ सब,
पेड़ लगाओ खुश हो जाएगा तुमसे रब
धरती बंजर हो जाएगी तो पछताओगे
अभी नहीं तो समय मिलेगा फिर कब
जलती धरती को कुछ तो राहत दे दो,
हरे भरे वृक्षों की उसको सौगात दे दो
चारों ओर खुशहाली छा सी जाएगी,
धरती का दामन खुशियों से भर दो।
भावना मोहन विधानी
अमरावती