जाऊँ कैसे घर मैं गुजरिया
नटखट कान्हा ने रंग दी चुनरिया
जाऊँ कैसे घर मैं गुजरिया
नीर भरन मैं चली पनघट को
देख ना पाई उस नटखट को
डाली पे बैठा कदंब के ऊपर
धम्म से कूदा मेरे पथ पर
रोकी जो उसने मेरी डगरिया
जाऊँ—-
मेरी नजरें पथरा गई थी
मैं तो बस घबरा गई थी
अबीर गुलाल से सना था चेहरा
आँखों में फागुन का पहरा
पलकें झपकाई मटकाई कमरिया
जाऊँ—
बिनती करूँ मैं भारी कर जोरी
पकड़ कन्हैया ने कलाई मरोड़ी
डारि दियो रंग बरजोरी
रोक ना पाई मैं भी निगोड़ी
फेंकी जो छिनकर मेरी गगरिया
जाऊँ—
आँखें नचाकर लगे मुस्कराने
होरी है कह-कह कर खिझाने
भोले पन ने भाया मन को
देखती रह गई मैं मोहन को
पल भर को मैं हुई रे बावरिया
जाऊँ—
किसको बताऊँ कैसे समझाऊँ
हालत अपनी कैसे छुपाऊँ
फागुन ने बौराया मन को
कैसे रोकूँ मैं मोहन को
मन मोरनी कर गई रे मुरलिया
जाऊँ—-
वसन भीजने की बात नहीं प्यारी
तन- मन भीज गई है सारी
रंगी जो कान्हा ने ऐसी चुनरिया
छूटे ना जो सारी उमरिया
भूल गई रे मैं अपनी डगरिया
जाऊँ—‘
सुधा शर्मा
राजिम छत्तीसगढ़
17-3-2019
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद