खुद से परिभाषित ना कर तू

खुद  से  परिभाषित ना  कर तू 

खुद   को   यूँ   खुद   से  परिभाषित   ना  कर  तू

मंज़िल  दूर  नहीं   खुद  को  वंचित   ना   कर  तू

रोड़े, ईंट, पत्थर, अड़चनें  बहुत  पड़े राहों में तेरे

मार ठोकर  सबको खुद को बस आरोहित कर तू

वक़्त  के   थपेड़े  तुझ   को  भी  कर  देंगे  अधमरे

इतिहास धुंधला पड़ा, खुद को बस अंकित कर तू

अंदर – ही – अंदर जलाता  क्यों तू, संग चराग़ के

हाथ उठा लपक चाँद, खुद को  प्रायोजित कर तू

कल का सूरज  किसने देखा है, रात  बहुत लम्बी है

अंदर कई प्रकाशपुंज तेरे, खुद को आलोकित कर तू

शून्य  ही  शून्य  बस आज  बिखरा  पड़ा  है  जहां में

छोड़  जहां  की  चिंता,  खुद  को आंदोलित  कर  तू

सूरज सर पर आएगा, साया तेरा भी सिमट जायेगा

साये  से  निकल  बाहर, खुद  को ना बाधित  कर तू

‘अजय’   है  तू,  खुद  को   परिभाषित  ना   कर तू

मंज़िल   दूर   नहीं,    खुद  को  वंचित   ना   कर  तू

—- अजय ‘मुस्कान’

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