मौत की आदत – नरेंद्र कुमार कुलमित्र
सुबह-सुबह पड़ोस के एक नौजवान की मौत की खबर सुना
एक बार फिर
अपनों की तमाम मौतें ताजा हो गई
अपनी आंखों से जितनी मौतें देखी है मैंने
निष्ठुर मौत पल भर में आती है चली जाती है
हम दहाड़ मार मार कर रोते रहते हैं
एक दूसरे को ढांढस बंधाते रहते हैं
क्रिया कर्म में लगे होते हैं
मौत को इससे क्या
वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती
उसकी तो आदत है मारने की रोज-रोज प्रतिपल
फर्क नहीं पड़ता उसे
घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या…?
— नरेंद्र कुमार कुलमित्र
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