रंग इन्द्रधनुष …..
धरती का हरापन सदा से बुलाते रहे मुझे
मैं उसके आँचल में दूब बनकर पसर गया ,
नीला विस्तृत आकाश हुर्र बुलाता रहा मुझे
मैं उसमें घुसकर नीलकंठ हो गया ,
मैं उनकी गली के गुलाबी रंग बीच
प्रेम प्याला पीकर महक गया ;
युवा बसंत को सजाते हुए कभी
काँपे नहीं मेरे हाथ लेकिन
अपनी बेटी को विदा करते हुए रो रहा हूँ |
रंगों की भाषा समझने निकला था मैं
अपने जीवन का कोरा कागज़ लेकर
वक्त के मौसम रंगते रहे मुझे और
अंत में बचा तो सिर्फ स्याह बुढ़ापा ,
रंगों से संवाद करने घुस पड़ा था मैं
सतपुड़ा के घने जंगलों सी दुनिया में
डर गया मैं गांवों को
शहरी लिबास पहनते देखकर |
समय के पुस्तकालय में नहीं पाया मैंने
हवा – पानी का रंग लेकिन
इसके सिर फुटौव्वल का रंग लाल देखा ,
गिरगिट और वैश्या के रंग बदलने को
मैंने दूध – भात दिया हुआ है लेकिन
आम लोगों के बदलते रंग देखकर
सेंसेक्स के सांड की तरह बिदक जाता हूँ मैं |
जिंदगी का इन्द्रधनुष
रँग बाँटकर गुम हो चुका था
मैं अपने गाँव में नदी किनारे
दहकती चिता में शांति से लेटा रहा
लोग लौट रहे थे अपनी जिंदगी का रंग ढूँढने
मुझे मेरे गाँव का देहाती रंग सदा से भाया है
मेरा आखिरी गुमान यह देखकर हैरान था कि –
किसी के मर जाने से दुनिया नहीं थमती |
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रमेश कुमार सोनी
रायपुर