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  • बेरोजगार पर दोहे – विनोद सिल्ला

    बेरोजगार पर दोहे

    पढ़-पढ़ पोथी हो गए, सभी परीक्षा पास।
    रोजगार मिलता नहीं, टूटी जीवन आस।।

    उपाधियां तो मिल गई, नहीं मिला है काम।
    मिल तो जाती नौकरी, दे पाते गर दाम।।

    बेकारी सबसे बुरी, हर लेती है मान।
    सारा जीवन व्यर्थ सा, रहे कष्ट में जान।।

    रोजगार देंगे तुझे, वादे करते रोज।
    मतपेटी लेते भरा, करते हैं फिर मौज।।

    आवेदन कर थक गया, चढ़े नहीं परवान।
    सत्ता से पटती नहीं, बिखर गए अरमान।।

    रोजगार सबको मिले, उन्नत होए देश।
    अमन चैन उल्लास हो, कमी नहीं हो लेश।।

    सिल्ला भी है कहरहा, सुन विनती सरकार।
    रोजगार दे दीजिए, महके हर परिवार।।

    विनोद सिल्ला

  • आदमी और कविता – हरदीप सबरवाल

    आदमी और कविता – हरदीप सबरवाल द्वारा रचित आज के कविताओं के विषय पर यथार्थ और करारा व्यंग्य किया गया है।

    आदमी और कविता

    kavi sammelan


    सिर्फ आदमी ही नहीं बंटे हुए,
    जाति, धर्म, संप्रदाय या वर्ण में,
    इन दिनों
    जन्म लेती कविता भी,
    ऐसे कई साँचों में ,
    ढल कर निकलती है,
    यूँ कहने भर को
    कविता का उद्देश्य था
    आदमी को
    सांचों से मुक्त करना,
    पर आदमी ने
    कविता को ही
    अपने जैसे बना दिया…..

    © हरदीप सबरवाल

  • भावनाओं को कुछ ऐसा उबाल दो- रामकिशोर मेहता

    भावनाओं को कुछ ऐसा उबाल दो



    भावनाओं को
    कुछ ऐसा उबाल दो।
    जनता न सोचे
    सत्ता के बारे में,
    उसके गलियारे में,
    नित नये
    सवाल कुछ उछाल दो।

    खड़ा कर दो
    नित नया उत्पात कोई।
    भूख और प्यास की
    कर सके न बात कोई।
    शान्ति से क्यों सांस ले रहा
    कोई शहर।
    घोल दो हवाओं में
    नित नया जहर।

    अट्टालिकाओं की तरफ
    उठे अगर
    कोई नजर
    दूर सीमाओं पर
    उठा नया भूचाल दो।

    एक सीख सीख लो।
    छोटी लंकीर के सामने
    बड़ी लकीर खींच दो।
    नहीं मिटती गरीबी देश की
    जन में
    विभाजन की
    भावनाएं सींच दो।

    खींच दो दीवार
    बाँट दो परिवार
    धर्म, भाषा, जाति का
    फिर नया बबाल दो।

    रामकिशोर मेहता

  • स्वच्छता और मैं – नीता देशमुख

    स्वच्छता और मैं

    कविता स्वच्छता और मैं जो कि नीता देशमुख द्वारा रचित है जो हमें स्वच्छता अपनाने को प्रेरित कर रही है।

    चारों और फैला एक आवरण
    सभी का है वह पर्यावरण।
    चहुँ ओर हरितिमा की चादर
    सरोवर झीले व सुन्दर नहर।
    उपहार अनमोल दिए प्रकृति ने
    विकृत कर दिए उन्हें मानव ने।
    जन जन मे लाना जागरूकता
    सीखना सीखाना है स्वच्छता।
    स्वयं ही कर्तव्य है निभाना
    धरा को है स्वच्छ बनाना।
    नीर को है निर्मल करना
    मित्र बनाएंगे स्वच्छता को
    दूर करेंगे रोग शत्रु को।
    स्वच्छता और मै एक होंगे।
    तन ही नहीं मन नेक होंगे।
    पग पग उन्नति के प्रसून खिलेंगे।
    क़ामयाबी के दीप प्रदीप्त होंगे।

    नीता देशमुख
    इंदौर (स्वरचित )

  • मौत की आदत – नरेंद्र कुमार कुलमित्र

    मौत की आदत – नरेंद्र कुमार कुलमित्र

    सुबह-सुबह पड़ोस के एक नौजवान की मौत की खबर सुना
    एक बार फिर
    अपनों की तमाम मौतें ताजा हो गई

    अपनी आंखों से जितनी मौतें देखी है मैंने
    निष्ठुर मौत पल भर में आती है चली जाती है

    हम दहाड़ मार मार कर रोते रहते हैं
    एक दूसरे को ढांढस बंधाते रहते हैं
    क्रिया कर्म में लगे होते हैं
    मौत को इससे क्या
    वह कभी पीछे मुड़कर नहीं देखती
    उसकी तो आदत है मारने की रोज-रोज प्रतिपल

    फर्क नहीं पड़ता उसे
    घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या…?

    — नरेंद्र कुमार कुलमित्र