मैं गुलाब हूँ
मैं गुलाब हूं
खूबसूरती में बेमिसाल हूं
थोड़ा नाजुक और कमजोर हूं
छूते ही बिखर जाती हूं
फैल जाती है मेरी पंखुड़ियां
ऐसा लगता है पलाश हूं
उन पंखुड़ियों को मैं समेटती हूं
कांटों की चुभन की परवाह
नहीं करती हूं
बढ़ती जाती हूं
जीवन में आगे
टकराने को नदियों की धारा से
चट्टानों से या तूफानों से
रास्ता खोज जीवन का
एक नया सवेरा पाने को
अपने अस्तित्व को बचाने को
यह सबब भी तो मैंने
गुलाब से ही सीखा है
सुंदरता और सुगंध से लबरेज
गुलाब तोड़ने वालों के
हाथ में कांटा भी चुभाती है ।
कवयित्री- चारूमित्रा
नंबर -9471243970
एम.आई.जी- 82, एच.एच.कॉलोनी, रांची-834002