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  • क्यों जाति की बात करें

    क्यों जाति की बात करें
    (१६,१६)

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    जब जगत तरक्की करता हो,
    देश तभी उन्नति करता है।
    जब मानव सहज विकास करे,
    क्यों जाति द्वेष की बात करें।

    जाति धर्म मे पैदा होना,
    मनुजों की वश की बात नहीं,
    फिर जाति वर्ग की बात करें
    यह सच्ची अच्छी बात नहीं।

    माना जो पहले बीत गया,
    कुछ कर्मी वर्ग अवस्था थी,
    नवयुग मे नया प्रभात करें,
    क्यों जाति वर्ग की बात करें।

    परदुख पर दो आँसू टपके,
    हरसुख पर मिल दो ताली दें
    जाति मनुज की मनुज जाति है,
    तब क्यों जाती की गाली दे।

    जब बंधन ढीले पड़ते हो,
    सबजन विकास पथ बढ़ते हो,
    जब सूरज सहज प्रकाश करे,
    सबजन मिल सतत प्रयास करें।

    जब जन मन सरल सनेह करे,
    सत साहित्यिक अभ्यास करे,
    जब मानव सहज विकास करे,
    हम क्यो जाती की बात करे।
    . _______
    बाबू लाल शर्मा

  • बिटिया की शादी कर दूंगा

    बिटिया की शादी कर दूंगा

    शादी
    shadi


    . °°°°°°
    अब के सब कर्जे भर दूंगा,
    बिटिया की शादी कर दूंगा।।

    खेत बीज कर करी जुताई,
    अबकी होगी बहुत कमाई।
    शहर भेजना, सुत को पढ़ने।
    भावि जीवन उसका गढ़ने।
    गिरवी घर भी छुड़वा लूंगा,
    बिटिया की शादी कर दूंगा।।

    फसल बिकेगी,चारा होगा,
    दुख हमने ही सारा भोगा।
    अब वे संकट नहीं रहेंगे,
    सहा खूब, अब नहीं सहेंगे।
    इक भैंस दुधारू ला दूंगा,
    बिटिया की शादी कर दूंगा।।

    पका, बाजरा खूब बिकेगा,
    छाछ मिलेगी, दूध बिकेगा।
    घर खर्चो में रख तंगाई ।
    घर वर देखूँ, करूँ सगाई।
    इक कमरा भी बनवा लूंगा,
    बिटिया की शादी कर दूंगा।।

    आस दीवाली मौज मनाऊं,
    सबको ही कपड़े दिलवाऊं।
    फसल पके जो खूब निरोगी।
    मौसम आए नहीं कुयोगी।
    गृहिणी को झुमके ला दूंगा,
    बिटिया की शादी कर दूंगा।।
    . °°°°°°°°
    ✍✍©
    बाबू लाल शर्मा”बौहरा”
    सिकन्दरा,दौसा,राज.

  • प्रकृति का प्रचंड रूप

    प्रकृति का प्रचंड रूप

    प्रकृति का प्रचंड रूप

    प्रकृति का प्रचंड रूप



    हे मनुज!
    तेरी दानव प्रवृत्ति ने
    खिलवाड़ धरा से बार बार किया।
    फिर भी शांत रही अवनि
    हर संभव तेरा उपकार किया।
    तेरी लालसा बढ़ती गई
    जो वक्त आने पर उत्तर देगी।
    मत छेड़ो सोई धरती को
    प्रचंड रूप धर लेगी।।

    इसने चीर अपना दामन
    तुम्हें अन्न धन का भंडार दिया।
    सुर असुरों को पालने वाली
    बराबर सबको ममता, प्यार दिया।
    कोख में रखती हर अंकुर को
    स्नेह आंचल में भर लेती।
    मत जला पावन आंचल
    प्रचंड रूप धर लेगी।।

    घन इसकी केश-लटाएं
    अम्बर चुनरी सी फैले।
    दरख़्त रूपी हाथ काटकर
    कर लिए तुने जीवन मैले।
    इसका क्रोध भूकंप,जवाला है
    जब चाहे उभर लेगी।
    महामारी, सूखे, बाढ़ से,
    प्रचंड रूप धर लेगी।।

    जो वरदान मिले हैं मां से
    स्वीकार कर सम्मोहन कर ले।
    जितनी जरूरत उतना ही ले
    उचित संसाधन दोहन कर ले।
    बसा बसेरा जीव, पक्षियों का..
    मां है माफ कर देगी।
    चलना उंगली पकड़ धरा की वरना
    प्रचंड रूप धर लेगी।।

    रोहताश वर्मा ” मुसाफिर “

    पता – 07 धानक बस्ती खरसंडी, नोहर
    हनुमानगढ़ (राजस्थान)335523

    शिक्षा – एम.ए,बी.एड हिन्दी साहित्य।

  • मित्रता की शान

    – मित्रता की शान –

    kavita

    मित्र है बहुमूल्य उपहार,
    करो इनका सदैव सत्कार।
    सच्चा-मित्र है गुणों का खान,
    मित्र का करो नित-सम्मान।
    सच्चे मित्र पे मैं हर-पल जाऊँ कुर्बान,
    विश्वास का रिश्ता , मित्रता की शान।

    भुखा रहकर हमको खिलाया,
    खुद जाग कर हमको सुलाया।
    हजारों में सबसे न्यारा – प्यारा,
    दुःख में जो संँवारा मित्र हमारा।
    वफादार – मित्र की यही है पहचान,
    विश्वास का रिश्ता, मित्रता की शान।

    विश्वास का है ये कोमल डोर,
    लेकर जाए सत्मार्ग की ओर।
    नाम सुनकर भुल जाऐं शत्रुता,
    ऐसा है कृष्ण सुदामा की मित्रता।
    रंज-ओ-गम में जो दे सच्चा – ज्ञान,
    विश्वास का रिश्ता, मित्रता की शान।

    कठिन वक्त में देकर साथ,
    रहे हमेशा दिन हो या रात।
    मित्र बनाओ पहचान कर,
    सही- गलत को जानकर।
    मित्रता है अनमोल धरोहर,
    भावनाओं का है ये सरोवर।
    मित्र बनाओ कहता है अकील खान,
    विश्वास का रिश्ता, मित्रता की शान।

    —–अकिल खान रायगढ़ जिला – रायगढ़ (छ.ग.) पिन – 496440.

  • मुंशी प्रेमचंद जी साहित्यकार थे ऐसे

    मुंशी प्रेमचंद जी साहित्यकार थे ऐसे

    मुंशी प्रेमचंद जी साहित्यकार थे ऐसे

    मुंशी प्रेमचंद जी साहित्यकार थे ऐसे

    हाँ मुंशी प्रेमचंद जी, साहित्यकार थे ऐसे।
    मानवता की नस- नस को पहचान रहे हों जैसे।।

    सन् अट्ठारह सौ अस्सी में अंतिम हुई जुलाई
    तब जिला बनारस में ही लमही भी दिया सुनाई
    आनंदी और अजायब जी ने थी खुशी मनाई
    बेटे धनपत को पाया, सुग्गी ने पाया भाई

    फिर माता और पिता जी बचपन में छूटे ऐसे।
    बेटे धनपत से मानो सुख रूठ गए हों जैसे।।

    उर्दू में थे ‘नवाब’ जी हिन्दी लेखन में आए
    विधि का विधान था ऐसा यह प्रेमचंद कहलाए
    लोगों ने उनको जाना दु:खियों के दु:ख सहलाए
    घावों पर मरहम बनकर निर्धन लोगों को भाए

    अपनाया था जीवन में शिवरानी जी को ऐसे।
    जब मिलकर साथ रहें दो, सूनापन लगे न जैसे।।

    बी.ए. तक शिक्षा पाई, अध्यापन को अपनाया
    डिप्टी इंस्पेक्टर का पद शिक्षा विभाग में पाया
    उसको भी छोड़ दिया फिर सम्पादन इनको भाया
    तब पत्र-पत्रिकाओं में लेखन को ही पनपाया

    फिर फिल्म कंपनी में भी, मुम्बई गए वे ऐसे।
    जब दीपक बुझने को हो, तब चमक दिखाता जैसे।।

    उन्नीस सौ छत्तीस में, अक्टूबर आठ आ गयी
    क्यों हाय जलोदर जैसी बीमारी उन्हें खा गयी
    अर्थी लमही से काशी मणिकर्णिका घाट पा गयी
    थोड़े से लोग साथ थे, गुमनामी उन्हें भा गयी

    बेटे श्रीपत, अमृत को, वे छोड़ गए तब ऐसे
    बेटों से नाम चलेगा, दुनिया में जैसे- तैसे।।

    रचनाकार –उपमेन्द्र सक्सेना एड.
    ‘कुमुद- निवास’
    बरेली (उ. प्र.)