सखी के लिए कविता – डॉ0 दिलीप गुप्ता
रिमझिम बरसे.मन है हरसे
प्रणय को ब्याकुल हिरदय होवे,
सात समंदर पार है सजनी
बिरह में बदरा-मेघा रोवे…..
तप्त हृदय की अगन बुझाने—–
आओ न सखी.. आओ न सखी।।–।।
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नीला अम्बर,हरी-भरी धरती
नाचत मोर रिझावत सजनी,
उपवन डार-पात लदे फूलन
महकी रातरानी यहां रजनी,
सुने आंगन को महकाने—-
आओ न सखी…आओ न सखी।।–।।
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धरती भीगी मन मोरा लथपथ
प्रेम का पपीहा बोले,
प्रणय को आकुल नृत्य करत है
मोर अपने पंख को खोले
पिय के हिय की आग बुझाने…
आओ न सखी… आओ न सखी।।–।।
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उपवन फूलों से भर आए
उन पर भौंरन हैं मंडराए,
देखी डार- पात-फूलन पर
बैठी तितली रास रचाए,
ऐसे में मुझको गले लगाने….
आओ न सखी… आओ न सखी।।
डॉ0 दिलीप गुप्ता