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  • सड़क पर कविता

    सड़क पर कविता

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    है करारा सा तमाचा, भारती के गाल पर।…
    रो रही है आज सड़कें, दुर्दशा के हाल पर।।…

    भ्रष्टता को देख लगता, हम हुए आज़ाद क्यूँ?
    आम जनता की कमाई, मुफ्त में बरबाद क्यूँ?
    सात दशकों से प्रजा की, एक ही फरियाद क्यूँ?
    नोट के बिस्तर सजाकर, सो रहे दामाद क्यूँ?
    चोर पहरेदार बैठे, देश के टकसाल पर…
    रो रही है आज सड़के, दुर्दशा के हाल पर…

    मार्ग के निर्माण में तो, घूसखोरी सार है।
    राजनेता सह प्रशासक, मुख्य हिस्सेदार है।
    कान आँखे मूँद लेती, अनमनी सरकार है।
    परिवहन के नाम पर तो, लूट का दरबार है।
    राह तो बनते उखड़ते, दुष्टता की चाल पर…
    रो रही है आज सड़के, दुर्दशा के हाल पर…

    मिट गई पथ की निशानी, पत्थरों में नाम है।
    जीर्ण सड़कों के करोड़ो, कागजों में दाम है।।
    चमचमाती सी सड़क अब, रोपने के काम की।
    है भयावह आँकड़े पर, मौत कहते आम की।।
    आज से अच्छे भले थे, आदिमानव काल पर…
    रो रही है आज सड़कें, दुर्दशा के हाल पर…

    ==डॉ ओमकार साहू मृदुल 18/11/20==

  • हे शारदा तुलजा भवानी (सरस्वती-वंदना)

    हे शारदा तुलजा भवानी (सरस्वती-वंदना)

    सरस्वती
    मां शारदा
    • तमसो मा ज्योतिर्गमय* हरिगीतिका

    हे शारदा तुलजा भवानी, ज्ञान कारक कीजिये।…
    अज्ञानता के तम हरो माँ, भान दिनकर दीजिये।…

    है प्रार्थना नवदीप लेकर, चल पड़े जिस राह में।
    सम्मान पग चूमें पथिक के, हर खुशी हो बाँह में।।
    उत्तुंग पथ में डाल डेरा, नभ क्षितिज की चाह में।
    मन कामना मोती चमकते, चल चुनें हम थाह में।

    जो अंधविश्वासी बनें हैं, मूढ़ की सुध लीजिये।…
    अज्ञानता के तम हरो माँ, भान दिनकर कीजिये।…

    सारांश सुखमय सा लिए जन, त्याग दें छल द्वेष को।
    पट मन तिमिर को मूल मेंटे, ग्राह्य ग्राहक शेष को।
    विज्ञान का वरदान जानें, अंक से अवधेश को।
    सत्कर्म साधक मर्म ज्ञानी, भा रहे रत्नेश को।

    उत्थान जन कल्याण कर शिव, नाथ हाला पीजिये।…
    अज्ञानता के तम हरो माँ, भान दिनकर कीजिये।…

    आरोग्य सेवक स्वस्थ होंगे, लाभप्रद तन योग से।
    तज तामसिक भोजन रहेंगे, मुक्त नाशक रोग से।
    संज्ञान अधिकारी रखे तब, दूर शोषण भोग से।
    ज्ञानेंद्र बन इतिहास गढ़ता, देखिये संजोग से।

    सत्संग की हो बारिशें तो, प्रेमपूर्वक भीजिये।…
    अज्ञानता के तम हरो माँ, भान दिनकर कीजिये।…

    === डॉ ओमकार साहू मृदुल===

  • मत करो प्रकृति से खिलवाड़-एकता गुप्ता

    मत करो प्रकृति से खिलवाड़-एकता गुप्ता

    विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस पर कविता

    मत करो प्रकृति से खिलवाड़

    मत करो प्रकृति से खिलवाड़-एकता गुप्ता
    हसदेव जंगल

    बदल गया है परिवेश हमारा ।
    दूषित हो रहा है अपना वातावरण ।

    काट काट कर हरे पेड़ों को।
    क्यूं छीन रहे हरियाली का आवरण?

    अनगिनत इमारतें दिन पर दिन बन रही।
    फैक्ट्रियों के काले धुएं का लग रहा ग्रहण।

    चारों ओर फैल रहा है प्रदूषण।
    दूषित हो रहा है अपना वातावरण।

    खतरे में पड़ गया सब का जीवन।
    हो गया अनगिनत सांसो का हरण।

    मत करो प्रकृति से खिलवाड़।
    बिगड़ रहा पर्यावरण संतुलन।

    क्षीण हो गई यदि प्रकृति।
    कैसे हो पाएगा सबका भरण पोषण।

    अभी भी कुछ नहीं है बिगड़ा।
    चलो मिलकर करते हैं वृक्षों का फिर से रोपण।

    स्वच्छ करें मिलकर वातावरण।
    धरती को पहनायें हम फिर से हरा-भरा आवरण।

    ऑक्सीजन और शुद्ध वायु की भी कमी होगी पूरी।
    वसुंधरा का हो जाएगा फिर से हरियाली से अलंकरण।

    हो जायेगा स्वर्णिम जीवन सबका।
    हरियाली से परिपूर्ण हो जाये पर्यावरण
    फिर से स्वच्छ हो जाएगा अपना वातावरण।

    एकता गुप्ता

  • खुद की तलाश _ तबरेज़ अहमद

    खुद की तलाश _ तबरेज़ अहमद

    kavita

    **ख़ुद कि तलाश से बेहतर*
    *मुझे कोई तलाश नहीं दिखती।*
    दरिया के पास रहकर भी प्यासा रहता हूँ मैं।
    कितने खुदगर्ज़ है ज़माने में लोग।
    उन्हें मेरी प्यास नहीं दिखती।
    महफ़िल में बुलाकर मुझे,वो मेरे साथ ग़ैरों जैसा बर्ताव करती है।
    ना जाने क्यों उसे मेरे प्यार का अहसास नहीं दिखती।
    मिल गया है उसे कोई नया रक़ीब।
    इसलिए अब मेरे लिखे ग़ज़ल उसे ख़ास नहीं दिखती।
    पहले मुझसे बाते ना हो तो तो ग़मज़दा दिखती थी वो।
    जबसे किसी ग़ैर को हमसफ़र बनाया है उसने उदास नहीं दिखती।
    मुझे आज भी उसके छोड़ने का बड़ा ग़म सताता है।
    एक वो है तबरेज़ जो निराश नहीं दिखती।

    *तबरेज़ अहमद*
    *बदरपुर नई दिल्ली*

  • ज़ज्बा–ए-वतन

    ज़ज्बा–ए-वतन

    tiranga

    पीर दिलों की मिटा के , रोशन किया ज़ज्बा – ए – वतन

    मादरे वतन पर मर मिटने का ज़ज्बा सिखा गए |

    वतनफ़रोशी का ज़ज्बा थी , उनकी धरोहर

    वो राग जिन्दगी का सुनाकर चले गए |

    कर गए रोशन अपने देश पर, मर मिटने का ज़ज्बा

    वो गीत बन के दिल में समाते चले गये |

    अपने लहू से सींच गए , वतनपरस्ती का ज़ज्बा

    मादरे वतन पर निसार होने की कला सिखा गए |

    मिटा दिया नासूर गुलामी का , कर अपना सर्वस्व समर्पण

    जो मर मिटे थे अपने , अपने देश की खातिर चले गए |

    गुलामी की जंजीरों से , आजाद कर गए वतन को

    माँ भारती के सच्चे सपूत होने का , सिला सिखा गए |

    पीर दिलों की मिटा के , रोशन किया ज़ज्बा – ए – वतन

    मादरे वतन पर मर मिटने का ज़ज्बा सिखा गए |

    वतनफ़रोशी का ज़ज्बा थी , उनकी धरोहर

    वो राग जिन्दगी का सुनाकर चले गए | |