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  • दीप शिखा- ( ताटंक छंद विधान )

    दीप शिखा- ( ताटंक छंद विधान )

    छंद
    छंद
    • ताटंक छंद विधान- १६,१४, मात्रिक छंद,चरणांत में, तीन गुरु (२२२) अनिवार्य है।
    • दो, दो चरण समतुकांत हो। चार चरण का एक छंद होता है।


    सुनो बेटियों जीना है तो,
    शान सहित,मरना सीखो।
    चाहे, दीपशिखा बन जाओ,
    समय चाल पढ़ना सीखो।

    रानी लक्ष्मी दीप शिखा थी,
    तब वह राज फिरंगी था।
    दुश्मन पर भारी पड़ती पर,
    देशी राज दुरंगी था।१
    .
    बहा पसीना उन गोरों को,
    कुछ द्रोही रजवाड़े में।
    हाथों में तलवार थाम मनु,
    उतरी युद्ध अखाड़े में।

    अंग्रेज़ी पलटन में उसने,
    भारी मार मचाई थी।
    पीठ बाँध सुत दामोदर को,
    रण तलवार चलाई थी।२
    .
    अब भी पूरा भारत गाता,
    रानी वह मरदानी थी।
    लक्ष्मी, झाँसी की रानी ने,
    लिख दी अमर कहानी थी।

    पीकर देश प्रेम की हाला,
    रण चण्डी दीवानी ने।
    तुमने सुनी कहानी जिसकी,
    उस मर्दानी रानी ने।३
    .
    भारत की बिटिया थी लक्ष्मी,
    झाँसी की वह रानी थी।
    हम भी साहस सीख,सिखायें,
    ऐसी रची कहानी थी।

    दिखा गई पथ सिखा गई वह,
    आन मान सम्मानों के।
    मातृभूमि के हित में लड़ना,
    जब तक तन मय प्राणों के।४
    .
    नत मस्तक मत होना बेटी,
    लड़ना,नाजुक काया से।
    कुछ पाना तो पाओ अपने,
    कौशल,प्रतिभा,माया से।

    स्वयं सुरक्षा कौशल सीखो,
    हित सबके संत्रासों के।
    दृढ़ चित बनकर जीवन जीना,
    परख आस विश्वासों के।५
    .
    मलयागिरि सी बनो सुगंधा,
    बुलबुल सी चहको गाओ।
    स्वाभिमान के खातिर बेटी,
    चण्डी ,ज्वाला हो जाओ।।

    तुम भी दीप शिखा के जैसे,
    रोशन तमहर हो पाओ।
    लक्ष्मी, झाँसी रानी जैसे,
    पथ बलिदानी खो जाओ।६
    .
    बहिन,बेटियों साहस रखना,
    मरते दम तक श्वाँसों में।
    रानी झाँसी बन कर जीना,
    मत आना जग झाँसों में।

    बचो,पढ़ो तुम बढ़ो बेटियों,
    चतुर सुजान सयानी हो।
    अबला से सबला बन जाओ,
    लक्ष्मी सी मरदानी हो।७
    .
    दीपक में बाती सम रहना,
    दीपशिखा, ज्वाला होना।
    सहना क्योंं अब अनाचार को,
    ऐसे बीज धरा बोना।

    नई पीढ़ियाँ सीख सकेंगी,
    बिटिया के अरमानों को।
    याद रखेगी धरा भारती,
    बेटी के बलिदानों को।८
    .
    शर्मा बाबू लाल लिखे मन,
    द्वंद छन्द अफसानों को।
    बिटिया भी निज ताकत समझे,
    पता लगे अनजानों को।

    बिटिया भी निजधर्म निभाये,
    सँभले तज कर नादानी।
    बिटिया,जीवन में बन रहना,
    लक्ष्मी जैसी मर्दानी।९

    बाबू लाल शर्मा, बौहरा, विज्ञ

  • ११ मात्रिक नवगीत – पीत वर्ण पात हो

    ११ मात्रिक नवगीत – पीत वर्ण पात हो

    kavita


    घाव ढाल बन रहे
    . स्वप्न साज बह गये।
    . पीत वर्ण पात हो
    . चूमते विरह गये।।

    काल के कपाल पर
    . बैठ गीत रच रहा
    . प्राण के अकाल कवि
    . सुकाल को पच रहा
    . सुन विनाश गान खग
    रोम की तरह गये।
    पीत वर्ण……….।।

    फूल शूल से लगे
    मीत भयभीत छंद
    रुक गये विकास नव
    . छा रहा प्राण द्वंद
    . अश्रु बाढ़ चढ़ रही
    डूब बहु ग्राह गये।
    पीत……………।।

    चाह घनश्याम मन
    . रात श्याम आ गई
    . नींद एक स्वप्न था
    . खैर नींद भा गई
    . श्वाँस छोड़ते बदन
    वात से जिबह हुये।
    पीत……………..।।

    जीवनी विवाद मय
    जन्म मर्त्य कामना
    .देख रहे भीत बन
    . काल चाल सामना
    . शेर से दहाड़ हम
    छोड़ कर जिरह गये।
    पीत ……………….।।

    देश देश की खबर
    . काग चील हँस रहे
    . मौन कोकिला हुई
    . काल ब्याल डस रहे
    . लाश लापता हुई
    मेघ शोक कह गये।
    पीत…………….।।

    शव सचित्र घूमते
    . मौन होड़ पंथ पर
    . गड़ रही निगाह अब
    . भारतीय ग्रंथ पर
    . शोध के बँबूल सब
    सिंधु की सतह गये।
    पीत……………..।।

    शून्य पंथ ताकते
    . रीत प्रीत रो पड़ी
    . मानवीय भावना
    . संग रोग हथकड़ी
    . दूरियाँ सहेज ली
    धूप ले सुबह गये।
    पीत………….।।

    खेत सब पके थके
    . ले किसान की दवा
    . तीर विष बुझे लिए
    . मौन साधती हवा
    . होंठ सूख वृक्ष के
    अश्रु मीत बह गये।
    पीत…………….।।

    ताण्डवी मशान से
    . मजार है मिल रही
    . कब्र की कतार में
    . मौत वस्त्र सिल रही
    . कफन की दुकान के
    गुबार हम सह गये।
    पीत……………..।।

    काट वृक्ष भूमि तन
    . स्वास्थ्य मूल खो रहे
    . सिंधु नीर सर नदी
    . जगत गंद ढो रहे
    . काल की मजार ले
    फैसले सुलह नये।
    पीत……………।।

    देव स्वर्ग में बसे
    . काल दूत डोलते
    . रक्त बीज बो रहे
    . गरल गंध घोलते
    . नव विषाणु फौज के
    खिल रहे कलह नये
    पीत………………।।

    विहंग निज पर कुतर
    . प्रेम पत्र ला रहे
    . पेड़ फूल डालियाँ
    . गिरि शिखर हिला रहे
    . सिंधु आँच दे रहे
    और दम्भ दह गये।
    पीत……………. ।।

    कामिनी सजा रही
    . गात मौत मीत के
    ढूँढ रही मौत शव
    . गीत संग रीत के
    . प्रीत की उमंग में
    छंद दंग रह गये।
    पीत…………..।।

    स्वदेश में प्रवास से
    . जागरूक भारती
    . शूल बन फूल संग
    . यत्न कर्म पालती
    . हार गई मौत तब
    देख हम फतह हुये।
    पीत………………।।

    चल दिए छंद छोड़
    . पीढ़ियाँ सहेज कर
    . सह लिए घाव ताप
    . सच से परहेज कर
    . आज नींद सी खुली
    लोक पुण्य ग्रह गये।
    पीत……………..।।

    बीत गये रोग सब
    सोच प्राण हँस रहा
    भव के अकाल भूल
    . मोह मान फँस रहा
    . जग रहा अहम भाव
    वयम् अन्त गृह गये।
    पीत…………………।।

    ताक रहे विश्व जन
    . विहँस रही भारती
    . विश्व जीत देश मम
    . देह मान आरती
    . सर्व लोक मान्यतम्
    विश्व गुरू कह गये।
    पीत… वर्ण.. पात..हो
    चूमते… विरह…गये।।

    बाबू लाल शर्मा , बौहरा, विज्ञ

  • सरसी छंद विधान – होलिका आई

    होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली रंगों का तथा हँसी-खुशी का त्योहार है। यह भारत का एक प्रमुख और प्रसिद्ध त्योहार है, जो आज विश्वभर में मनाया जाने लगा है। विकिपीडिया

    सरसी छंद विधान – होलिका आई

    holi-kavita-in-hindi
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    सरसी छंद विधान: —
    १६ + ११ मात्रा ,पदांत २१(गाल)
    चौपाई+दोहा का सम चरण


    हम भी छेडें राग
    बीत बसंत होलिका आई,
    अब तो आजा मीत।
    फाग रमेंगें रंग बिखरेंगे,
    मिल गायेंगे गीत।

    खेत फसल सब हुए सुनहरी,
    कोयल गाये फाग।
    भँवरे तितली मन भटकाएँ,
    हम भी छेड़ें राग।

    घर आजा अब प्रिय परदेशी,
    मैं करती फरियाद।
    लिख लिख भेज रही मैं पाती,
    रैन दिवस करि याद।

    याद मचलती पछुआ चलती,
    नही सुहाए धूप।
    बैरिन कोयल कुहुक दिलाती।
    याद तेरे मन रूप।

    सजन लौट के प्रिय घर आजा,
    तन मन चाहत मेल।
    जलता बदन होलिका जैसे,
    चाह रंग रस खेल।

    मदन फाग संग बहुत सताए,
    तन अमराई बौर।
    चंचल चपल गात मन भरमें,
    सुन कोयल का शोर।

    निंदिया रानी रूठ रही है,
    रैन दिवस के बैर।
    रंग बहाने से हुलियारे,
    खूब चिढ़ाते गैर।

    लौट पिया जल्दी घर आना।
    तुमको मेरी आन।
    नहि,आए तो समझो सजना,
    नहीं बचें मम प्रान।
    . ———
    बाबू लाल शर्मा “बौहरा” विज्ञ

  • प्रतीक्षा पर कविता

    प्रतीक्षा पर कविता

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    आयु ही जैसे प्रतीक्षा-श्रृंखला है,
    हर प्रतीक्षा पूर्ण कब होती भला है!

    रवि प्रतीक्षित धर्मरत हैं पूर्व-पश्चिम,
    सूर्य मिलकर पूर्व से पश्चिम चला है।

    धैर्य से जिस बीज ने की है प्रतीक्षा,
    वृक्ष सुंदर हो वही फूला-फला है।

    झूठ है आलस्य को कहना प्रतीक्षा,
    उन्नयन के मार्ग पर यह तो बला है।

    व्यग्रता को त्याग,धीरज को जगा ले,
    साधना का दीप इससे ही जला है।

    रेखराम साहू

  • खुद को है -मनीभाई ‘नवरत्न’

    यहाँ पर मनीभाई नवरत्न द्वारा रचित खुद को है आप पढ़ेंगे आशा आपको यह पसंद आएगी

    खुद पर कविता -मनीभाई ‘नवरत्न’

    खुद को है

    जिन्दगी के हरेक  दंगल में …
    लड़ना खुद को है।
       भिड़ना खुद को है।
      टुटना खुद को है।
      जुड़ना खुद को है।

    खुद को है -मनीभाई’नवरत्न’

    ये वक्त,बेवक्त माँगती हैं कुर्बानियाँ…
      बिखरना खुद को है।
      सिसकना खुद को है।
      संभलना खुद को है।
      उठना खुद को है।

    यूँ ही नहीं, कोई इतिहास के पन्नों में …
        लुटाना खुद को है।
        झोंकना खुद को है।
      तपाना खुद को है।
       निखरना खुद को है।

    खुदा के रहमों करम हम बंदों पे सदा से …
       समझना खुद को है।
      पहचानना खुद को है।
      मानना खुद को है।
        जानना खुद को है।

    ✍मनीभाई”नवरत्न”