नवीन कल्पना करो
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो। तुम कल्पना करो।
अब घिस गईं समाज की तमाम नीतियाँ,
अब घिस गईं मनुष्य की अतीत रीतियाँ,
हैं दे रहीं चुनौतियाँ तुम्हें कुरीतियाँ,
निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए-
तुम कल्पना करो, नवीन कल्पना करो। तुम कल्पना करो
जंजीर टूटती कभी न अश्रु-धार से,
दुख-दर्द दूर भागते नहीं दुलार से,
हटती न दासता पुकार से, गुहार से,
इस गंग-तीर बैठ आज राष्ट्र शक्ति की-
तुम कामना करो, किशोर, कामना करो। तुम कल्पना करो
जो तुम गए, स्वदेश की जवानियाँ गई,
चित्तौर के प्रताप की कहानियाँ गईं,
आजाद देश रक्त की रवानियाँ गईं,
अब सूर्य-चन्द्र की समृद्धि ऋषि-सिद्धि की-
तुम याचना करो, दरिद्र, याचना करो। तुम याचना करो…..
जिसकी तरंग लोल हैं अशान्त सिन्धु वह,
जो काटता घटा प्रगाढ़ वक्र ! इन्दु वह,
जो मापता समग्र सृष्टि दृष्टि-बिन्दु वह,
वह है मनुष्य, जो स्वदेश की व्यथा हरे,
तुम यातना हरो, मनुष्य, यातना हरो। तुम यातना हरो
तुम प्रार्थना किए चले, नहीं दिशा हिली,
तुम साधना किए चले, नहीं निशा हिली,
इस आर्त दीन देश की न दुर्दशा हिली,
अब अश्रु दान छोड़ आज शीश-दान से –
तुम अर्चना करो, अमोघ अर्चना करो। तुम अर्चना करो
आकाश है स्वतन्त्र है स्वतन्त्र मेखला,
यह शृंग भी स्वतन्त्र ही खड़ा बना ढला,
है जल प्रपात काटता सदैव श्रृंखला,
आनन्द, शोक, जन्म और मृत्यु के लिए-
तुम योजना करो, स्वतन्त्र योजना करो। तुम योजना करो….
– गोपालसिंह नेपाली