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  • वह अनाथ बालक- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    भाई-बहन

    वह अनाथ बालक- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    वह अनाथ बालक
    टोह में जीवन की
    चला जा रहा है
    उन अँधेरी गलियों में
    जो जीवन का पता
    बताने में सक्षम हैं

    उसके मन में
    जीवन जीने की
    अथाह चाहत और
    कुछ कर गुजरने का पागलपन
    उसे इस राह पर
    कुछ उम्मीद से ले आया है

    साहस का दमन पकड़
    कुछ कह सकूं
    इस असभ्य समाज से
    जो कुछ देने से पहले
    दस बार सोचता है
    दस बार तोलता है

    वह कहता है
    इसमें समाज का कोई दोष नहीं
    लोगों के व्यवहार ने
    स्वयं की हार ने उसे
    इस तरह सोचने को
    विवश किया है

    पर बालक का जूनून
    उसे एकला चालो रे
    के पथ पर आगे
    बढ़ने को प्रेरित करता है

    राह पर बढ़ते चलो
    मंजिल मिल ही जायेगी
    साथी मिलें न मिलें
    राह खुद ब खुद बन जायेगी

    जरूरत है कदम बढ़ाने की
    उस और जाने की
    जहाँ चाँद मिलता है
    जिसकी रोशनी में
    सारा जग दमक उठता है

    वह बढ़ता जा रहा है
    आसमां उसके करीब
    वह दूसरों के लिए
    पथ प्रदर्शक बन गया है

    जीवन उसका संवर गया है
    यह कुछ और नहीं
    परिश्रम व लगन की कहानी है

    हर सफल व्यक्ति की जुबानी है
    उनकी ही कहानी है

  • बोलो रे बोलो बोलो राधे गोपाल बोलो- आरती – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कृष्ण
    कृष्ण

    बोलो रे बोलो बोलो राधे गोपाल बोलो- आरती – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    बोलो रे बोलो बोलो
    राधे गोपाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    कृष्ण गोपाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    कन्हैया गोपाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    बांसुरी गोपाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    मुकुट गोपाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    गिरधर गोपाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    यशोदा गोपाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    देवकी के लाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    नन्द के गोपाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    वासुदेव के लाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    सुदामा बाल बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    मोर मुकुट घनश्याम बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    गोवर्धन घनश्याम बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    राधा के श्याम बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    मीरा घनश्याम बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    कृष्ण चारों धाम बोलो

    बोलो रे बोलो बोलो
    राधे गोपाल बोलो

  • मातृभूमि- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    मातृभूमि- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    उसकी आँखों का पानी
    सूख चुका था

    उसकी मरमरी बाहें
    आज भी
    इंतजार कर रही हैं उसका

    जो गया तो
    फिर वापस नहीं आया

    ये उसका पागलपन नहीं

    उसकी आत्मा की आवाज है

    जो बरबस ही दरवाजे की और
    ढकेल देती है उसे

    इन्तजार है उसे उस पल का

    जो उसे टूटने से बचा ले

    ये उसका पुत्र प्रेम है जिसने

    उसने अंदर तक विव्हल किया है

    वो गया था कहकर

    जीतूंगा और वापस लौटूंगा

    सियाचिन की वादियों में

    लड़ा वो वीर बनकर

    दुश्मनों को पस्त कर

    फिर निढाल हो शांत हो गया

    पहन तिरंगा कफ़न पर

    मातृभूमि पर न्योछावर

    परमवीर बन गया वह ….

  • कवि पंख हुए विस्तृत – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    kavita

    कवि पंख हुए विस्तृत – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कवि पंख हुए विस्तृत
    हुए विस्तृत हुए व्यापक
    सोच बदली बदले नियम
    विषय हुए विस्तृत हुए व्यापक

    करवटें बदलती सभ्यता
    करवटें बदलता समाज
    विकृत होती मानसिकता
    उबाल पर काम का प्रभाव

    संस्कार उभरे रूढ़ीवादी विचार बन
    संस्कृति उभरी मनोरंजन का स्वर बन
    सद्विचारों का प्रभाव दिख रहा
    पनप रहा मनचलापन

    अजीब सा बहाव है
    पसार रहा पाँव है
    पुण्य छीण हो रहे
    विलासिता का भाव है

    धर्म पर अधर्म की मुहर
    सत्य आज असहाय है
    चीख – चीख पुकारती
    मानवता आज है

    फूलों से खुशबू खो रही
    अंगडाई आंसू – आंसू रो रही
    नेत्र हुए विकराल हैं
    सतीत्व को न छाँव है

    देवालय शून्य में झांकते
    मानव इधर उधर भागते
    अस्तित्व का पता नहीं
    कि राह किधर है कहाँ

    कि पुण्यात्मा कहैं किसे
    कि मस्तक चरण धरें किसे
    कि मोड़ जीवन का है ये कैसा
    कि अब गिरे कि कब गिरे

    शून्य में हम झांकते
    रोशन दीये के तले
    कि कैसा ये बहाव है
    न कोई आसपास है

    कि अंत का पता नहीं
    कि अगले पल कि खबर नहीं
    फिर भी मोहपाश है
    कि टूटता नहीं कि छूटता नहीं

    नव विचार कर रहे विव्हल
    कि चूर – चूर ये जवानियाँ
    प्रयोग दर प्रयोग बढ़
    मिटा रहे निशानियां

    कि हाथ तेरे कुछ न तेरे है
    कि हाथ कुछ न मेरे है
    कि हम भागते तुम भागते
    कि हम भागते बस भागते

    कि सुकून न मिल रहा यहाँ
    क्या चैन मिलेगा वहाँ
    कि दो पल को रुक सकूँ खुदा
    कि खुद की खोज कर सकूं

    कि राह दिखलाना मुझे
    कि पनाह में अपनी तू ले मुझे
    कि मै गिरूं तो तू संभाल ले
    हो सके तो तू करार दे

    कवि पंख हुए विस्तृत
    हुए विस्तृत हुए व्यापक

  • फागुन मास पर कविता

    फागुन में वर्षा होती है, बारिश की बूँदें वातावरण को स्वच्छ कर देती हैं तथा पूरा वातावरण सुंदर प्रतीत होता है। आसमान अत्यंत साफ़ सुथरा लगता है, प्रकृति में चारों तरफ़ हरियाली ही हरियाली होती है, वातावरण शीतल तथा शांत हो जाता है।

    महाशिवरात्रि (Maha Shivratri), विजया एकादशी, होलिका दहन (Holika Dahan) आदि कई प्रमुख व्रत-त्योहार फाल्गुन माह में ही मनाए जाते हैं. कहा जा सकता है कि होली के पर्व के साथ ही एक सौर वर्ष का समापन होता है. सौर धार्मिक कैलेंडर में, फाल्गुन का महीना सूर्य के मीन राशि में प्रवेश के साथ शुरू होता है.

    फागुन मास पर कविता

    falgun mahina
    फागुन महिना पर हिंदी कविता

    फागुन का मास।
    रसिकों की आस।।
    बासंती वास।
    लगती है खास।।

    होली का रंग।
    बाजै मृदु चंग।।
    घुटती है भंग।
    यारों का संग।।

    त्यज मन का मैल।
    टोली के गैल।।
    होली लो खेल।
    ये सुख की बेल।।

    पावन त्योहार।
    रंगों की धार।।
    सुख की बौछार।
    दे खुशी अपार।।


    वासुदेव अग्रवाल नमन