बाबू की माया- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
बाबू की माया
कोई समझ नहीं पाया
काइयां जिसकी सख्सियत
अंतरात्मा से धूर्त
सारी दुनिया को यह
समझता महामूर्ख
बाबू हमारे एकदम निराले
आँखों पर चढ़ा चश्मा
कारनामे करते सारे काले
दूसरों की बढ़ी तनख्वाह से
इन्हें हमेशा नफरत
चाहे भरा हो
इनका खुद का पर्स
सरसरी इनकी निगाहें
छोड़ती नहीं कोई आंकड़े
चश्मे के भीतर की दो आँखों से
भांप लेते हैं ये बिल का मज़मून
इनके खुद के नियमों के आगे
चलता नहीं कोई क़ानून
अच्छे – अच्छे अफसर मानते हैं
इनकी शातिर चालों का लोहा
क्योंकि उनके पास भी नहीं है पढ़ने को
बाबू चालीसा के अलावा कोई दोहा
बाबू की बाबूगिरी ने सबको हैं
नाकों चने चबवाए
इनकी लाल कलम से यारों
कोई ना बचने पाए
बाबू की कारगुजारी
हर पेन पर है पड़ती भारी
लाल पेन के आगे भैया
चलती नहीं कोई कटारी
पल नित नए तरीके खोजें
पैसे रोकन की राह खोजें
फैकें नए पेंतरे नित-दिन
पास नहीं होते हमारे बिल
बाबू से जो ना हो अंडरस्टेन्डिंग
समझो तुम्हारी फाइल पेंडिंग
पीछे के दरवाजे से तुम
बाबू के घर में घुस सकते हो
चाय चढावा देकर भैया
पूरा बिल पास करा सकते हो
हमारी जो तुम मानो भैया
बाबू से पंगा मत लेना
बड़ी गंदी कौम होती है ये
इनका ना कोई भाई और ना कोई भैया
बस इनका जो चल जाए तो
मिले ना तुमको इक रुपैया
जानो तुम बाबू की माया को
देखो मत इनकी काया को
दिल में इनके जगह बनाओ
चाय – चढावा खूब चढाओ
चाहे सामने के दरवाजे से आओ
या फिर पीछे के दरवाजे से आओ
बाबू की कौम से भैया
रहना संभल – संभल के
हमारी जो मानो तुम भैया
बाबू से पंगा मत लेना
इनके दर पर माथा टेको
थोडा झुक – झुक कर रैंगो
बाबू की खोची खिच्चड़ माया
जिससे कोई बच न पाया
हमरी बात को मन में धारो
बाबू से ये सब जग हारो
बाबू से ये सब जग हारो
बाबू से ये सब जग हारो