जब दाँतों में बढ़ती पीड़ा
जब दाँतों में बढ़ती पीड़ा,बेचैनी से सब सुख धोती।
स्वस्थ रहें अब दाँत सभी के, चमकें ऐसे जैसे मोती।।
निकले दाँत दूध के जब थे, लगते थे कितने सुखदायी।
धीरे-धीरे गिरे वे सभी,लेकिन नहीं हुए दु:खदायी।।
उनके नीचे से उभरे जो, दाँत वही तो थे चिर’थायी।
और अक्ल की दाढ़ों से ही, हुई प्रक्रिया पूरी भाई।।
दाँत ठीक से निकले समझो, मुखड़े पर सुंदरता छाई।
उनकी देखभाल हम कर लें,छिपी इसी में सदा भलाई।।
थोड़ी सी भी लापरवाही,सारा चैन हमारा खोती।
स्वस्थ रहें अब दाँत सभी के, चमकें ऐसे जैसे मोती।।
भोजन को जो दाँत कुतरते, कहलाते छेदक या कृन्तक।
चीड़ -फाड़ का काम करें जो,वे होते भेदक या रदनक।।
जो भोजन को कुचल रहे हों, उनको कहते अग्र चर्वणक।
पीसें भली भाँति जो भोजन, दाढ़ कहें या दन्त चर्वणक।।
दिखे मसूढ़ों के बाहर जो,दन्त शिखर हैं उसमें रहते।
ढका मसूढों से अंदर जो,उसे दन्त ग्रीवा हैं कहते।।
दन्त मूल को जड़ भी कहते,जो जबड़े की पीड़ा ढोती।
स्वस्थ रहें अब दाँत सभी के, चमकें ऐसे जैसे मोती।
दाँत बने हैं जिस पदार्थ से, उसको दन्त अस्थि अब जानें।
दाँतों में जो भाग खोखला,उसको दन्त गुहा हम मानें।।
गूदे से जो भाग भरा हो,लगा यहाँ मज्जा कहलाने।
डेन्टीन नामक पदार्थ से,दाँत मसूढों में ही आने।।
मज्जा में हैं सूक्ष्म रक्त से, भरी कोशिकाएँ- नलिकाएँ।
सूत्र हुए स्नायु इसलिए,दाँतो को सजीव हम पाएँ।।
सदा इनेमल की पॉलिश से,दन्त अस्थि की रक्षा होती।
स्वस्थ रहें अब दाँत सभी के, चमकें ऐसे जैसे मोती
रचनाकार -उपमेन्द्र सक्सेना एड.
‘कुमुद- निवास’
बरेली (उ प्र.)
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