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  • धूल-भरा दिन / अज्ञेय

    धूल-भरा दिन / अज्ञेय

    पृथ्वी तो पीडि़त थी कब से आज न जाने नभ क्यों रूठा,
    पीलेपन में लुटा, पिटा-सा मधु-सपना लगता है झूठा!
    मारुत में उद्देश्य नहीं है धूल छानता वह आता है,
    हरियाली के प्यासे जग पर शिथिल पांडु-पट छा जाता है।

    पर यह धूली, मन्त्र-स्पर्श से मेरे अंग-अंग को छू कर
    कौन सँदेसा कह जाती है उर के सोये तार जगा कर!
    “मधु आता है, तुम को नवजीवन का दाम चुकाना होगा,
    मँजी देह होगी तब ही उस पर केसरिया बाना होगा!

    “परिवर्तन के पथ पर जिन को हँसते चढ़ जाना है सूली,
    उन्हें पराग न अंगराग, उन वीरों पर सोहेगी धूली!
    “झंझा आता है झूल-झूल, दोनों हाथों में भरे धूल,
    अंकुर तब ही फूटेंगे जब पात-पात झर चुकें फूल!”

    मत्त वैजयन्ती निज गा ले शुभागते, तू नभ-भर छा ले!
    मुझ को अवसर दे कि शून्यता मुझ को अपनी सखी बना ले!
    धूल-धूल जब छा जाएगी विकल विश्व का कोना-कोना,
    केंचुल-सा तब झर जाएगा अग-जग का यह रोना-धोना।

    आज धूल के जग में बन्धन एक-एक करके टूटेंगे,
    निर्मम मैं, निर्मम वसन्त, बस अविरल भर-भर कर फूटेंगे!

  • कलगी बाजरे की / अज्ञेय

    कलगी बाजरे की / अज्ञेय

    हरी बिछली घास।
    दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
     
    अगर मैं तुम को ललाती सांझ के नभ की अकेली तारिका
    अब नहीं कहता,
    या शरद के भोर की नीहार – न्हायी कुंई,
    टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
    नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
    या कि मेरा प्यार मैला है।
     
    बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
    देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
     
    कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
    मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
    तुम्हारे रूप के-तुम हो, निकट हो, इसी जादू के-
    निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूं-
    अगर मैं यह कहूं-
     
    बिछली घास हो तुम लहलहाती हवा मे कलगी छरहरे बाजरे की ?
     
    आज हम शहरातियों को
    पालतु मालंच पर संवरी जुहि के फ़ूल से
    सृष्टि के विस्तार का- ऐश्वर्य का- औदार्य का-
    कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
    बिछली घास है,
    या शरद की सांझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी
    अकेली
    बाजरे की।
     
    और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूं
    यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
    और मैं एकान्त होता हूं समर्पित
     
    शब्द जादू हैं-
    मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है ?

  • यह दीप अकेला / अज्ञेय

    यह दीप अकेला / अज्ञेय

    यह दीप अकेला स्नेह भरा
    है गर्व भरा मदमाता पर
    इसको भी पंक्ति को दे दो

    यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा
    पनडुब्बा : ये मोती सच्चे फिर कौन कृति लायेगा?
    यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा
    यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :

    यह दीप अकेला स्नेह भरा
    है गर्व भरा मदमाता पर
    इस को भी पंक्ति दे दो

    यह मधु है : स्वयं काल की मौना का युगसंचय
    यह गोरसः जीवन-कामधेनु का अमृत-पूत पय
    यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय
    यह प्रकृत, स्वयम्भू, ब्रह्म, अयुतः
    इस को भी शक्ति को दे दो

    यह दीप अकेला स्नेह भरा
    है गर्व भरा मदमाता पर
    इस को भी पंक्ति दे दो

    यह वह विश्वास, नहीं जो अपनी लघुता में भी काँपा,
    वह पीड़ा, जिसकी गहराई को स्वयं उसी ने नापा,
    कुत्सा, अपमान, अवज्ञा के धुँधुआते कड़वे तम में
    यह सदा-द्रवित, चिर-जागरूक, अनुरक्त-नेत्र,
    उल्लम्ब-बाहु, यह चिर-अखंड अपनापा
    जिज्ञासु, प्रबुद्ध, सदा श्रद्धामय
    इस को भक्ति को दे दो

    यह दीप अकेला स्नेह भरा
    है गर्व भरा मदमाता पर
    इस को भी पंक्ति दे दो

    नयी दिल्ली (‘आल्प्स’ कहवाघर में), 18 अक्टूबर, 1953

  • ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी

    ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी

    ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी

    atal bihari bajpei
    अटल बिहारी वाजपेयी

    ऊँचे पहाड़ पर,
    पेड़ नहीं लगते,
    पौधे नहीं उगते,
    न घास ही जमती है।

    जमती है सिर्फ बर्फ,
    जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और,
    मौत की तरह ठंडी होती है।
    खेलती, खिलखिलाती नदी,
    जिसका रूप धारण कर,
    अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।

    ऐसी ऊँचाई,
    जिसका परस
    पानी को पत्थर कर दे,
    ऐसी ऊँचाई
    जिसका दरस हीन भाव भर दे,
    अभिनंदन की अधिकारी है,
    आरोहियों के लिये आमंत्रण है,
    उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,

    किन्तु कोई गौरैया,
    वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
    ना कोई थका-मांदा बटोही,
    उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।

    सच्चाई यह है कि
    केवल ऊँचाई ही काफ़ी नहीं होती,
    सबसे अलग-थलग,
    परिवेश से पृथक,
    अपनों से कटा-बँटा,
    शून्य में अकेला खड़ा होना,
    पहाड़ की महानता नहीं,
    मजबूरी है।
    ऊँचाई और गहराई में
    आकाश-पाताल की दूरी है।

    जो जितना ऊँचा,
    उतना एकाकी होता है,
    हर भार को स्वयं ढोता है,
    चेहरे पर मुस्कानें चिपका,
    मन ही मन रोता है।

    ज़रूरी यह है कि
    ऊँचाई के साथ विस्तार भी हो,
    जिससे मनुष्य,
    ठूँठ सा खड़ा न रहे,
    औरों से घुले-मिले,
    किसी को साथ ले,
    किसी के संग चले।

    भीड़ में खो जाना,
    यादों में डूब जाना,
    स्वयं को भूल जाना,
    अस्तित्व को अर्थ,
    जीवन को सुगंध देता है।

    धरती को बौनों की नहीं,
    ऊँचे कद के इंसानों की जरूरत है।
    इतने ऊँचे कि आसमान छू लें,
    नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,

    किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
    कि पाँव तले दूब ही न जमे,
    कोई काँटा न चुभे,
    कोई कली न खिले।

    न वसंत हो, न पतझड़,
    हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
    मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।

    मेरे प्रभु!
    मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
    ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
    इतनी रुखाई कभी मत देना।

    ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी

  • झुक नहीं सकते / अटल बिहारी वाजपेयी

    झुक नहीं सकते / अटल बिहारी वाजपेयी

    झुक नहीं सकते / अटल बिहारी वाजपेयी

    atal bihari bajpei
    अटल बिहारी वाजपेयी

    टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

    सत्य का संघर्ष सत्ता से
    न्याय लड़ता निरंकुशता से
    अंधेरे ने दी चुनौती है
    किरण अंतिम अस्त होती है

    दीप निष्ठा का लिये निष्कंप
    वज्र टूटे या उठे भूकंप
    यह बराबर का नहीं है युद्ध
    हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
    हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
    और पशुबल हो उठा निर्लज्ज

    किन्तु फिर भी जूझने का प्रण
    अंगद ने बढ़ाया चरण
    प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
    समर्पण की माँग अस्वीकार

    दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
    टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते

    झुक नहीं सकते / अटल बिहारी वाजपेयी