धूल-भरा दिन / अज्ञेय
पृथ्वी तो पीडि़त थी कब से आज न जाने नभ क्यों रूठा,
पीलेपन में लुटा, पिटा-सा मधु-सपना लगता है झूठा!
मारुत में उद्देश्य नहीं है धूल छानता वह आता है,
हरियाली के प्यासे जग पर शिथिल पांडु-पट छा जाता है।
पर यह धूली, मन्त्र-स्पर्श से मेरे अंग-अंग को छू कर
कौन सँदेसा कह जाती है उर के सोये तार जगा कर!
“मधु आता है, तुम को नवजीवन का दाम चुकाना होगा,
मँजी देह होगी तब ही उस पर केसरिया बाना होगा!
“परिवर्तन के पथ पर जिन को हँसते चढ़ जाना है सूली,
उन्हें पराग न अंगराग, उन वीरों पर सोहेगी धूली!
“झंझा आता है झूल-झूल, दोनों हाथों में भरे धूल,
अंकुर तब ही फूटेंगे जब पात-पात झर चुकें फूल!”
मत्त वैजयन्ती निज गा ले शुभागते, तू नभ-भर छा ले!
मुझ को अवसर दे कि शून्यता मुझ को अपनी सखी बना ले!
धूल-धूल जब छा जाएगी विकल विश्व का कोना-कोना,
केंचुल-सा तब झर जाएगा अग-जग का यह रोना-धोना।
आज धूल के जग में बन्धन एक-एक करके टूटेंगे,
निर्मम मैं, निर्मम वसन्त, बस अविरल भर-भर कर फूटेंगे!