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  • घर के कितने मालिक -मनीभाई नवरत्न

    घर के कितने मालिक

    वाह भाई !
    मैंने ईंटें लाई ।
    सीमेंट ,बालू , कांक्रीट, छड़
    और पसीने के पानी से
    खड़ा कर लिया
    अपना खुद का घर।
    बता रहा हूँ सबको
    मैं असल मालिक।

    ये “मैं और मेरा “
    मेरे होते हैं सोने के पहले।
    जैसे ही आयेगी झपकी।
    आयेंगे इस घर के
    और भी मालिक
    बिखेरेंगे कुतरेंगे सामान ।
    वही जिसे मैं कहता था
    एन्टीक पीस।
    बताता था सबको
    जिसे फलां जगह की
    सबसे नायाब चीज़।।

    अजी !
    जरा सी लापरवाही में,
    खुली छोड़ क्या दिया
    चीनी की डब्बा।
    मानो, न्यौता दे दिया।
    अब आयेंगे इस घर के
    और भी मालिक
    चट कर जायेंगे ,
    ले जायेंगे अपने ठिकाना।
    यहीं कहीं कोना
    जिसे मैं कहता अपना घर।

    लाल कालीन बिछी
    वाह साफ-सुथरा फर्श
    “मैं आऊँ ! मैं आऊँ !”
    कहते हुए आ रही
    घर की मालकिन
    चलते हुए गंदे जगहों से
    सोयेंगे सोफे के नरम गद्दो पे ।

    अब जैसे ही झपकी टूटेगी,
    कल सुबह मेरी ।
    नौकर सदृश,
    चीजें जमाऊँगा,
    चीनी डिब्बा बंद करुंगा।
    फर्श गद्दे साफ करूँगा।
    अब मुझे ये समझ आया है
    कि ये जो घर है
    जिसे मैं कहता था अपना ही ।
    ना जाने  घर के कितने मालिक?

    – मनीभाई “नवरत्न “

  • हे मेहनतकशों  इन्हें पहचान /राजकुमार मसखरे

    हे मेहनतकशों इन्हें पहचान /राजकुमार मसखरे

    हे मेहनतकशों इन्हें पहचान /राजकुमार मसखरे

    हे मेहनतकशों इन्हें पहचान /राजकुमार मसखरे

    कितने राजनेताओं के सुपुत्र
    सरहद में जाने बना जवान !
    कितने नेता हैं करते किसानी
    ये सुन तुम न होना हैरान !
    बस फेकने, हाँकने में माहिर
    जनता को भिड़ाने में महान !


    भाषण में राशन देने वाले
    यही तो है असली शैतान !
    किसान के ही अधिकतर बेटे
    सुरक्षा में लगे हैं बंदूक तान !
    और खेतों में हैअन्न उपजाता
    कंधे में हल है इनकी शान !
    इन नेता जी के बेटों को देखो
    कई के ठेके,कीमती खदान !


    संगठन में हैं कितने काबिज़
    रंगदारी के हैं लाखों स्थान !
    बस ये नारा लगाते हैं फिरते
    जय जवान , जय किसान !
    किसान, मजदूर, जवान ही तो
    ये ही हैं धरती के भगवान !
    कुर्सी के लिए लड़ने वालों को
    हे मेहनतकशों !इन्हें पहचान!

    — *राजकुमार मसखरे*

  • सपना हुआ न अपना

    सपना हुआ न अपना

    बचपन में जो सपने देखे, हो न सके वो पूरे,
    मन को समझाया, देखा कि, सबके रहे अधूरे!
    उडूं गगन में पंछी बनकर, चहकूं वन कानन में,
    गीत सुरीले गा गा   कर, आनन्द मनाऊं मन में!
    मां ने कहा, सुनो, बेटा, तुम, चाहो अगर पनपना
    नहीं, व्यर्थ के सपने देखो, सपना हुआ न अपना

    सुना पिताजी ने, जब मेरे, सपने की सब बातें,
    मुझसे कहा, नहीं, सपने के लिए, बनी हैं रातें!
    दिन में, अथक परिश्रम करना, रातों को आराम,
    खुद को तुम तैयार करो, असल यही है काम!
    जीवन मंत्र, गूढ़ रहस्य है, सोने को ज्यों तपना,
    नहीं, व्यर्थ के सपने देखो, सपना हुआ न अपना!

    पद्म मुख पंडा,
    ग्राम महा पल्ली डाकघर लोइंग

  • प्रेम में पागल हो गया

    प्रेम में पागल हो गया

    रूप देख मन हुआ प्रभावित,
    हृदय घायल हो गया।
    सुंदरी क्या कहूं मैं,
    तेरे प्रेम में पागल हो गया।

    भूल गया स्वयं को,
    नयनों में बसी छवि तेरी।
    हृदयाकांक्षा एक रह गई,
    बाहों में तू हो मेरी।

    नर शरीर मैंने त्याग दिया,
    जीवन की आशा है तू ही तू।
    तेरे प्रेम की कविता,
    तेरे प्रेम की ग़ज़ल लिखूं।

    कवि विशाल श्रीवास्तव
    जलालपुर फ़र्रूख़ाबाद।

  • मेरा मन लगा रामराज पाने को /मनीभाई नवरत्न

    मेरा मन लगा रामराज पाने को /मनीभाई नवरत्न

    राम/श्रीराम/श्रीरामचन्द्ररामायण के अनुसार,रानी कौशल्या के सबसे बड़े पुत्र, सीता के पति व लक्ष्मणभरत तथा शत्रुघ्न के भ्राता थे। हनुमान उनके परम भक्त है। लंका के राजा रावण का वध उन्होंने ही किया था। उनकी प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है क्योंकि उन्होंने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता तक का त्याग किया।

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    मेरा मन लगा रामराज पाने को / मनीभाई नवरत्न

    मेरा मन लागा रामराज पाने को ।

    मेरा मन लागा रामराज पाने को ।
    तड़प रहा जन जन दाने-दाने को ।
    पलते रहे सब उद्योग धंधे ,
    ना हो सड़कें, चौराहे गंदे ।
    अवसर मिले ऐसा कि
    ऋणी हो ऋण चुकाने को ।

    मेरा मन लागा रामराज पाने को ।

    अन्याय को मिले सजा
    विचरित हो सके स्वतंत्र प्रजा ।
    नौबत आए ना वो दिन
    कि शहीद हो जाए भुलाने को ।

    मेरा मन लागा रामराज पाने को ।

    राम तेरी गंगा हो गई मैली ।
    चहुं दिक् पर भ्रष्टाचार है फैली ।
    कैसे गर्वित शीश हो जग में
    जब कर्म हो, शीश झुकाने को ।

    मेरा मन लगा रामराज पाने को।।

    -मनीभाई नवरत्न