घर के कितने मालिक
वाह भाई !
मैंने ईंटें लाई ।
सीमेंट ,बालू , कांक्रीट, छड़
और पसीने के पानी से
खड़ा कर लिया
अपना खुद का घर।
बता रहा हूँ सबको
मैं असल मालिक।
ये “मैं और मेरा “
मेरे होते हैं सोने के पहले।
जैसे ही आयेगी झपकी।
आयेंगे इस घर के
और भी मालिक
बिखेरेंगे कुतरेंगे सामान ।
वही जिसे मैं कहता था
एन्टीक पीस।
बताता था सबको
जिसे फलां जगह की
सबसे नायाब चीज़।।
अजी !
जरा सी लापरवाही में,
खुली छोड़ क्या दिया
चीनी की डब्बा।
मानो, न्यौता दे दिया।
अब आयेंगे इस घर के
और भी मालिक
चट कर जायेंगे ,
ले जायेंगे अपने ठिकाना।
यहीं कहीं कोना
जिसे मैं कहता अपना घर।
लाल कालीन बिछी
वाह साफ-सुथरा फर्श
“मैं आऊँ ! मैं आऊँ !”
कहते हुए आ रही
घर की मालकिन
चलते हुए गंदे जगहों से
सोयेंगे सोफे के नरम गद्दो पे ।
अब जैसे ही झपकी टूटेगी,
कल सुबह मेरी ।
नौकर सदृश,
चीजें जमाऊँगा,
चीनी डिब्बा बंद करुंगा।
फर्श गद्दे साफ करूँगा।
अब मुझे ये समझ आया है
कि ये जो घर है
जिसे मैं कहता था अपना ही ।
ना जाने घर के कितने मालिक?
– मनीभाई “नवरत्न “