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  • किसान की दशा पर कविता

    किसान की दशा पर कविता

    किसान की दशा पर कविता

    किसान खेत जोतते हुए
    23 दिसम्बर किसान दिवस 23 December Farmer’s Day

    देख तोर किसान के हाल
    का होगे भगवान !
    कि मुड़ धर रोवए किसान,
    ये का दुख दे भगवान !!

    पर के जिनगी बड़ सवारें,
    अपन नई थोरको फिकर जी !
    बजर दुख उठाये तन म,
    लोहा बरोबर जिगर जी !!
    पंगपंगावत बेरा उठ जाथे ,
    तभे होथे सोनहा बिहान !
    कि मुड़ धर रोवए किसान !!

    झुमत -गावत ओनहारी -सियारी ,
    देखे मन म खुश रहे किसान !
    सथरा नंगालीस पानी बईरी,
    देके कईसे लेेेगे भगवान !!
    ठेंगवा देखादेस दुलरवा बेटा ल,
    होगे अब मरे बिहान !
    कि मुड़ धर रोवए किसान !!

    पानी बिना धान झुरागे ,
    पनिहा अंकाल चना म आगे !
    करजा बोड़ी म बोए चना ,
    देखते देखत पानी म रखियागे !!
    सपना उजड़गे दूजराम के ,
    माढ़े रहिगे सबो गियान !
    कि मुड़ धर रोवए किसान !!

    दूजराम साहू
    निवास- भरदाकला
    तहसील- खैरागढ़
    जिला -राजनांदगाँव (छ ग)

  • हनुमत वंदना

    हनुमत वंदना

    चैत्र शुक्ल पूर्णिमा श्री हनुमान जयंती Chaitra Shukla Poornima Shri Hanuman Jayanti
    चैत्र शुक्ल पूर्णिमा श्री हनुमान जयंती Chaitra Shukla Poornima Shri Hanuman Jayanti

    राम नाम जाप कर, चित्त निज साफ कर,
    पवनसुत ध्यान धर,प्रभु को पुकारिये।
    भेद भाव भूल कर, क्रोध अहं नाश कर,
    बजरंगी शरण जा, जीवन सुधारिये।।
    राम भक्त हनुमान, करें नित्य गुणगान
    मंगल को पूज कर, जीवन सँवारिये।
    लाल देह सर्व प्रिय,सियाराम बसें हिय
    लडुअन के भोग हों, आरती उतारिये।

    प्रवीण त्रिपाठी, नोएडा, 25 फरवरी 2020

  • संस्कारों पर कविता

    संस्कारों पर कविता

    बीज रोप दे बंजर में कुछ,
    यूँ कोई होंश नहीं खोता।
    जन्म जात बातें जन सीखे,
    वस्त्र कुल्हाड़ी से कब धोता।

    संस्कृति अपनी गौरवशाली,
    संस्कारों की करते खेती।
    क्यों हम उनकी नकल उतारें,
    जिनकी संस्कृति अभी पिछेती।
    जब जब अपने फसल पकी थी,
    पश्चिम रहा खेत ही बोता।
    बीज रोप दे बंजर में कुछ,
    यूँ कोई होंश नही खोता।

    देश हमारा जग कल्याणी,
    विश्व समाजी भाव हमारे।
    वसुधा है परिवार सरीखी,
    मानवता हित भाव उचारे।
    दूर देश पहुँचे संदेशे,
    धर्म गंग जन मारे गोता।
    बीज रोप दे बंजर में कुछ,
    यूँ कोई होंश नही खोता।

    मातृभूमि माता सम मानित,
    शरणागत हित दर खोले।
    जब जब विपदा भू मानव पर,
    तांडव कर शिव बम बम बोले।
    गाय मात सम मानी हमने,
    राम कृष्ण हरि कहता तोता।
    बीज रोप दे बंजर में कुछ,
    यूँ कोई होंश नही खोता।

    जगत गुरू पहचान हमारी,
    कनक विहग सम्मान रहा।
    पश्चिम की आँधी में साथी,
    क्यूँ तेरा मन बिन नीर बहा।
    स्वर्ग तुल्य भू,गंगा हिमगिरि,
    मन के पाप व्यर्थ क्यूँ ढोता।
    बीज रोप दे बंजर में कुछ,
    यूँ कोई होंश नही खोता।
    . ??‍♀??‍♀
    ✍©
    बाबू लाल शर्मा बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान
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  • कवि निमंत्रण पर कविता

    कवि निमंत्रण पर कविता

    मित्रों तुम आना
    आज मेरी कविता पाठ है

    कविता पाठ के बाद
    तुम्हारे आने-जाने का खर्चा दूँगा

    शाम को पार्टी होगी
    मिलकर जश्न मनाएंगे
    जैसे हर बार मनाते हैं

    बस एक गुज़ारिश है
    महफ़िल में
    जब मैं कविता पढूँगा
    मेरी हर पंक्तियों के बाद
    तुम सभी एक साथ
    वाह- वाह जरूर कहना

    कविता पढ़ने के बाद
    जब मैं धन्यवाद बोलूँ
    तुम ज़ोरदार तालियां बजाना

    वैसे तुम सभी अभ्यस्त हो
    ‘वाह-वाह’ और ‘तालियों’ का महत्त्व
    भलीभांति जानते हो

    मुझे पता है
    तुम जरूर आवोगे
    मना नहीं करोगे
    क्योकि  हम सभी कवि मित्र हैं

    हम एक दूसरे के जरूरत हैं
    कल तुम्हे भी तो मेरी ज़रूरत होगी

    मैं भी तो वही करूँगा
    जो तुम मेरे लिए करोगे

    इसलिए हे कवि मित्र !
    मेरा निमंत्रण स्वीकार करना
    तुम जरूर आना

    यह धमकी नहीं
    मेरा निवेदन है।

    — नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
    9755852479

  • अप्सरा पर कविता

    अप्सरा पर कविता

    बादलो ने ली अंगड़ाई,
    खिलखलाई यह धरा भी!
    हर्षित हुए भू देव सारे,
    कसमसाई अप्सरा भी!

    कृषक खेत हल जोत सुधारे,
    बैल संग हल से यारी !
    गर्म जेठ का महिना तपता,
    विकल जीव जीवन भारी!
    सरवर नदियाँ बाँध रिक्त जल,
    बचा न अब नीर जरा भी!
    बादलों ने ली अंगड़ाई,
    खिलखिलाई यह धरा भी!

    घन श्याम वर्णी हो रहा नभ,
    चहकने खग भी लगे हैं!
    झूमती पुरवाई आ गई,
    स्वेद कण तन से भगे हैं!
    झकझोर झूमे पेड़ द्रुमदल,
    चहचहाई है बया भी!
    बादलों ने ली अंगड़ाई,
    खिलखिलाई यह धरा भी!

    जल नेह झर झर बादलों का,
    बूँद बन कर के टपकता!
    वह आ गया चातक पपीहा,
    स्वाति जल को है लपकता!
    जल नेह से तर भीग चुनरी,
    रंग आएगा हरा भी!
    बादलों ने ली अंगड़ाई,
    खिलखिलाई यह धरा भी!

    ✍©
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा
    सिकंदरा,दौसा, राजस्थान