बसंत पंचमी पर कविता
मदमस्त चमन
अलमस्त पवन
मिल रहे हैं देखो,
पाकर सूनापन।
उड़ता है सौरभ,
बिखरता पराग।
रंग बिरंगा सजे
मनहर ये बाग।
लोभी ये मधुकर
फूलों पे है नजर
गीला कर चाहता
निज शुष्क अधर।
सजती है धरती
निर्मल है आकाश।
पंछी का कलरव,
अब बसंत पास।
हम रहो के राही है
भटक जाए इतना आसान नहीं
इतना रहो में गुमार नही
हम से टकरा जाए इतना हकूमत में साहस नही
हो जाता है
चिर हरण जैसे जब अपने घर ही ताक नही
अपने बच्चे ही हाथ नही
दुनिया में खूब कमाई दौलत
पर करता रहा में कोई राम राम नही
चलना आता है
पर करता है जमाना काट यहि
इतना किसी में दम नही
हमारे सामने कोई टिका नही
चिंता के इस दौर में
आज भी हम
किसी के गुलाम नही
आईडिया हमारे दर के सही
या यू कह दे हमारे गुलाम यहि
लेकिन जमाने में अभी हमारा निशान नही
होगा जल्द कोशिस हमारी
करेगी कोई काम सही
-सुरेंद्र कल्याण बुटाना
Surender Kalyan Butana
१
सागर मंथन जब हुआ, चौदह निकले रत्न।
*अन्वेषण* नित कर रहे, सतत समस्त प्रयत्न।।
२
*सम्प्रेषण* होता रहे, भव भाषा भू ज्ञान।
विश्व राष्ट्र परिकल्पना, हो साकार सुजान।।
३
अपनी रही विशेषता, सब जन के परि त्राण।
बना *विशेषण* हिन्द यह, सागर हिन्द प्रमाण।४
*अन्वेषण* करिए सतत, *सम्प्रेषण* कर ज्ञान।
बने *विशेषण* मानवी, विश्व राज्य सम्मान।।
५
खिलते फूल बसंत जब, करते *अलि* गुंजार।
कोयल कुहुके हे सजन, विरहा चुभे बहार।।
६
करना है *आक्रोश* अब, सैनिक सुनो जवान।
सीमा पर आतंक का, बचे न नाम निशान।।
७
करिये पंथ *प्रशस्त* तुम, पढ़िये बन विद्वान।
देश धरा हित कर्म कर, कलम वीर गुणवान।।
७
*प्रांजल* पथ कश्मीर हो, अवसर सर्व समान।
जाति धर्म आतंक मिट, लागू नया विधान।।
८
छंद लिखें *नवनीत* सम, भाषा मधुर सुजान।
हिन्दी हिन्दुस्तान अरु, काव्य कलम अरमान।।
९
पूछी कठिन *प्रहेलिका*, समझ न पाए छात्र।
उतना ज्ञान बखानिये, समुचित जितना पात्र।।
१०
नेता वर *वक्ता* बने , करते भाषण नित्य।
जनता को बहका रहे, चाह मान आदित्य।।
११
भोर काल में फैलता, नित भू पर *आलोक।*
आशा रखिए हे मनुज, व्यर्थ करो मत शोक।।
१२
बनती कली *प्रसून* जब, भ्रमर चाह मकरंद।
आते अवसर स्वार्थ सब, समझ मनुज मतिमंद।।
१३
*पहल* करे आतंक कर, छली पड़ोसी पाक।
शांति अहिंसा छोड़ अब, शक्ति दिखाएँ धाक।।
१४
*आदि* सृष्टि विधि ने रचे, जीवन विविध प्रकार।
मनु सतरूपा मनुज तन, संतति हेतु प्रसार।।
१५
वृक्ष धरा परिधान सम, सजते ज्यों शृंगार।
पाँच वृक्ष *वट* के लगे, पंचवटी। समहार।।
१६
*समझ शब्द सब संपदा, जोड़ लिखे बहु छंद।*
*शर्मा बाबू लाल मन , चाह मिटे भव द्वंद।।*
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✍©
बाबू लाल शर्मा,बौहरा
सिकंदरा,दौसा, राजस्थान
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मुझे बाजार में
एक आदमी मिला
जिसके चेहरे पर
न था कोई गिला
जो लगतार
मुस्करा रहा था
बङा ही खुश
नजर आ रहा था
मैंने उससे पूछा कि
कमाल है आज
जिसको भी देखो
मुंह लटकाए फिरता है
तनावग्रस्त-सा दिखता है
आपकी मुस्कान का
क्या राज है
मुस्करा रहे हो
कुछ तो खास है
उन्होंने कहा
मुझपे भी
महंगाई की मार है
मुझपे भी
गम सवार है
यहाँ दुखदाई
भ्रष्टाचार है
ऐसे में
खुश रहना कैसा
मुस्कराता नहीं
मेरा मुंह ही है
ऐसा
-विनोद सिल्ला
ऋतु बसन्त शुभ दिन आयो रे,
सबके मन को भायो रे।
पात-पात हरियाली सुन्दर,
मधु बन भीतर छायो रे।।
नीला अम्बर खूब सितारे
सबके मन को भाते हैं।
रक्त पलास खिले धरती पर,
तन में अगन लगाते हैं।
रंग-बिरंगे उपवन सुन्दर,
प्रकृति खूब हर्षायो रे।
ऋतु बसन्त खूब दिन आयो रे,……….।
आम्र बौर अमराई खिलकर,
पिय सन्देशा लाती है।
कामुकता का बाण चलाती,
कोयल गीत सुनाती है।।
शीतल मन्द पवन के झोंके,
मन आनन्द समायो रे।
ऋतु बसन्त शुभ दिन आयो रे,……….।
सरसों की लहराती फसलें,
दृश्य मनोरम सजते हैं।
फागुन के आने की आहट,
रंग बसन्ती लगते हैं।।
केशर की क्यारी की खुशबू,
मन उमंग बरसायो रे।
ऋतु बसन्त शुभ दिन आयो रे,………।
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छंदकार:-
बोधन राम निषादराज”विनायक”
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)
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