Blog

  • देशप्रेम पर कविता-कन्हैया साहू अमित

    देशप्रेम पर कविता-कन्हैया साहू अमित

    देशप्रेम पर कविता

    mera bharat mahan

    देशप्रेम रग-रग बहे, भारत की जयकार कर।
    रहो जहाँ में भी कहीं, देशभक्ति व्यवहार कर।

    मातृभूमि मिट्टी नहीं, जन्मभूमि गृहग्राम यह।
    स्वर्ग लोक से भी बड़ा, परम पुनित निजधाम यह।
    जन्म लिया सौभाग्य से, अंतिम तन संस्कार कर।-1
    रहो जहाँ में भी कहीं, देशभक्ति व्यवहार कर।

    वीरभूमि पैदा हुआ, निर्भयता पहचान है।
    धरती निजहित त्याग की, परंपरा बलिदान है।
    देशराग रग-रग बहे, बस स्वदेश सत्कार कर।-2
    रहो जहाँ में भी कहीं, देशभक्ति व्यवहार कर।

    साँसें लेते हैं यहाँ, कर्म भेद फिर क्यों यहाँ,
    खाते पीते हैं यहाँ, थाल छेद पर क्यों यहाँ।
    देशप्रेम उर में नहीं, फिर उसको धिक्कार कर।
    बेच दिया ईमान जो उनको तो दुत्कार कर।-3

    रहो जहाँ में भी कहीं, देशभक्ति व्यवहार कर।
    देशप्रेम रग-रग बहे, भारत की जयकार कर।

    कन्हैया साहू ‘अमित’
    भाटापारा छत्तीसगढ़

  • प्रेम उत्तम मार्ग है पर कविता

    प्रेम उत्तम मार्ग है पर कविता

    अन्नय प्रेम है तुझसे री
    तेरे स्वर लहरी की मधुर तान।
    तुम प्रेम की अविरल धारा हो
    मुख पे तेरी है मिठी मुस्कान ।
    मेरे मन में बसी है तेरी छवि
    तुम्हें देख के मेरा होय विहान।
    मैं व्यथित, विकल हूँ तेरे लिए
    हे प्रिय तुम्हीं हो मेरे प्राण ।
    शीतल सुरभित मंद पवन भी
    देख-देख तुम्हें शरमाई ।
    पिया मिलन की आस में फिर
    कहीं दूर पुकारे शहनाई ।।

    दर्पण सा तेरे मुखड़े में
    मैं खोकर हो गया विभोर ।
    तेरी आँखो की इन गहराई में
    सागर की भाँति उठ रही हिलोर।
    खुद को भूला तुझे देख के री
    हे मृगनयनी तू हो चितचोर ।
    रश्मियाँ सी जब लगी संवरने
    तब जाकर कहीं हुआ अंजोर ।
    तेरे प्यार की खुशबू ऐसे बहे
    जैसे बहती हो पुरबाई ।।
    पिया मिलन की आस में फिर
    कहीं दूर पुकारे शहनाई ।।

    उपवन की सारी कलियाँ भी
    तेरे अंग-अंग को रहीं सँवार।
    अम्बर में तेरी एक छवि लिए
    कब से मेरी आँखे रही निहार।
    बादल बनकर अब बरसो री
    मेरा मन कब से तुम्हें रहा पुकार।
    आहट सुनकर विचलित होता
    कब कहोगी तुम हो प्राण आधार।
    तेरे आने की दे गई निमंत्रण
    उपर से आई एक जुन्हाई ।
    पिया मिलन की आस में फिर
    कहीं दूर पुकारे शहनाई ।।

    ?सर्वाधिकार सुरक्षित?

    बाँके बिहारी बरबीगहीया

    ✒मेरी प्यारी मेरी शहनाई✒

  • बिहार बरबीघा (पुनेसरा) के कवि बाँके बिहारी बरबीगहीया द्वारा रचित कविता तुम और चाँद जो निश्छल प्रेम पर कविता को को दर्शाता है ।।

    निश्छल प्रेम पर कविता

    चाँद तू आजा फिर से पास मेरे
    बिन तेरे जिन्दगी अधूरी है ।
    खोकर तुम्हें आज मैंने जाना है
    मेरे लिए तू कितनी जरूरी है ।।

    रूठी हो अगर तो मैं मनाता हूँ
    माफ कर अब मैं कसम खाता हूँ
    गलती ना होगी अब से वादा है
    तेरे कदमों में सर झुकाता हूँ ।

    इश्क है तुमसे तू हीं जान मेरी ।
    तेरे बिन अपनी कोई पहचान नहीं
    मर हीं जाऊँगा चाँद तेरे बिन ।
    मान जा इंदु रख ले मान मेरी ।।

    तू हीं हिमकर तू हीं अमृतकर
    तुझमे शीतलता तुझसे जुन्हाई ।
    एक दफा फिर से मुस्कुरा दो ना
    फिर से बहने लगेगी पुरबाई ।।

    बादामी रातों में तेरी चंद्रकला
    पाट देती है प्रेम की दूरी ।
    तेरी तरूणाई ऐसी लगती है ।
    जैसे हर अंग से छलके अंगुरी ।।

    पूनम की रात में जब तुम आती हो।
    जगती है मन में प्रेम की आशा ।
    एक नजर देखो ना चंदा मेरी तरफ ।
    पूरी हो जाएगी मेरी अभिलाषा ।।

    ? सर्वाधिकार सुरक्षित?

    ✒ बाँके बिहारी बरबीगहीया

    ? तुम और चाँद ?

  • राधा और मीरा पर लेख

    रक्षा बन्धन एक महत्वपूर्ण पर्व है। श्रावण पूर्णिमा के दिन बहनें अपने भाइयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं। यह ‘रक्षासूत्र’ मात्र धागे का एक टुकड़ा नहीं होता है, बल्कि इसकी महिमा अपरम्पार होती है।

    कहा जाता है कि एक बार युधिष्ठिर ने सांसारिक संकटों से मुक्ति के लिये भगवान कृष्ण से उपाय पूछा तो कृष्ण ने उन्हें इंद्र और इंद्राणी की कथा सुनायी। कथा यह है कि लगातार राक्षसों से हारने के बाद इंद्र को अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया। तब इंद्राणी ने श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन विधिपूर्वक तैयार रक्षाकवच को इंद्र के दाहिने हाथ में बांध दिया। इस रक्षाकवच में इतना अधिक प्रताप था कि इंद्र युद्ध में विजयी हुए। तब से इस पर्व को मनाने की प्रथा चल पड़ी।

    राधा और मीरा पर लेख

    *_आखिर माताएं राधा और मीरा क्यों नहीं चाहती?_*

    एक विचार प्रस्तुत किया गया कि “हर माँ चाहती है कि उनका बेटा कृष्ण तो बने मगर कोई माँ यह नहीं चाहती कि उनकी बेटी राधा बने”। यह कटु सत्य है और मैं इससे पूर्णतः सहमत हूँ। लेकिन यह विचार मात्र है विमर्श उससे आगे है। क्या राधा की माँ चाहती थी कि राधा कृष्ण की प्रेमिका बने? नहीं। क्या अन्य गोपियां जो कृष्ण के प्रेम में दीवानी थी जिनमें से अधिकांश विवाहित और उम्र में उनसे बड़ी थी उनके परिवार और पति में से किसी की ऐसी इच्छा थी की वे गोपियां कृष्ण से प्रेम करे? नहीं।

    तो क्या यह विशुद्ध व्यभिचार था? या प्रेम था ? राधा और गोपियां तो फिर भी खैर है उस पागल मीरा को क्या सनक चढ़ी कि कृष्ण के हज़ारों हज़ारो साल बाद पैदा होने के बावजूद उनसे ऐसा प्रेम कर बैठी कि उनके प्रेम में घर परिवार पति राजभवन का सुख त्याग कर वृन्दावन के मंदिरों में घुंघरू बांध कर नाचने लगी एक राजसी कन्या?क्या उनका परिवार ऐसा चाहता था? नहीं। फिर क्यों राधा, गोपियां और मीरा हुई? जवाब जानने के लिए प्रेम को जानना नहीं समझना होगा उसे महसूस करना होगा।

    प्रेम मुक्ति है सामाजिक वर्जनाओं से मुक्ति, लोकलाज से मुक्ति। प्रेम विद्रोह है सामाजिक रूढ़ियों से बंधनों से विद्रोह। प्रेम व्यक्ति के हृदय को स्वतंत्र करता है उसे तमाम बंधनो से मुक्त करता है। जिसे प्रेम में होकर भी सामाजिक वर्जनाओं का ध्यान है स्वयं के कुशलक्षेम का ध्यान है वह प्रेम में नहीं है केवल प्रेम होने के भ्रम में है। क्योंकि प्रेम एकनिष्ठता है “जब मैं था तो हरि नहीं, जब हरि है तो मैं नहीं’ की स्थिति प्रेम है, एकात्मता प्रेम है। कृष्ण का राधा हो जाना राधा का कृष्ण हो जाना प्रेम है।

    कृष्ण के जाने के बाद राधा का कृष्ण बन भटकना प्रेम है क्योंकि कृष्ण से राधा का विलगाव संभव ही नहीं। प्रेम सामाजिक मर्यादा की रक्षा नहीं उसका अतिक्रमण है। प्रेम सही गलत फायदा नुकसान नहीं समझता इसीलिए वह प्रेम है। जिसमें लाभ हानि का विचार किया जाए वह व्यापार है प्रेम नहीं। क्या मीरा अपने एकतरफा प्रेम की परिणति नहीं जानती थी? जानती थी फिर क्यों ? क्योंकि प्रेम सोच समझकर नहीं किया जाता, प्रेम लेनदेन नहीं है कि आप बदले में प्रेम देंगे तब ही प्रेम किया जाएगा, जो नि:शर्त हो निःस्वार्थ हो वही प्रेम है। हाँ ये सच है कि माताएं राधा नहीं चाहती मगर ये भी सच है कि जो राधा कृष्ण के प्रेम में सीमाओं को लांघ लेती है तमाम विरोधों के बावजूद वह ‘आराध्या’ ‘देवी’ की तरह एक दिन पूजी जाती है।

    कृष्ण से पहले राधा का नाम लिया जाता है। जो मीरा कृष्ण के प्रेम में सामाजिक आलोचना रूपी विष का प्याला पी जाती है एकदिन उसी के भजन गा कर भक्त कृष्ण को प्रसन्न करने का प्रयास करते है। क्या यह राधा और मीरा की जीत नहीं है? क्या उन्हें व्यभिचारी या विद्रोही कह कर आप कटघरे में खड़ा कर सकते है? कुछ भी मुफ़्त में नहीं मिलता सबके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। नीलकंठ कहलाने के लिए शिव को भी विषपान करना पड़ा था, मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाने के लिए राम को अपनी प्राणों से प्रिय सीता को निर्वासित करना पड़ा था वह भी तब जब वह गर्भवती थी।

    फिर प्रेम कैसे मुफ़्त में मिल सकता है? रूखमणी पत्नी होकर भी क्यों नहीं पूजी जाती है क्योंकि उसने वह अपमान वह वंचना नहीं झेली उसने उस प्रबल विरोध का सामना नहीं किया जिसका सामना राधा ने किया मीरा ने किया। माताएं राधा और मीरा होने की सलाह इसलिए नहीं देती क्योंकि वे जानती है कि देवियां रोज नहीं पैदा होती, ऐसी विद्रोहिणी सहस्त्र वर्षो में एक बार जन्म लेती है मगर जब जन्म लेती है तो इतिहास में अपनी छाप छोड़ जाती है। जिनकी मृत्यु के बाद भी मुझ जैसे कोई तुच्छ कलमकार उन पर लिख कर स्वयं को धन्य समझता है। माइकल मधुसूदन दत्त ने राधा कृष्ण के प्रेम के विषय में लिखा है-
    “जिसने कभी न साधा मोहन रूप बिना बाधा,
    वो ही न जान पाया है इस जग में क्यों कुल कलंकिनी हुई है राधा”

    ?राधे राधे?

    © कमल यशवंत सिन्हा ‘तिलसमानी'(kys)
    सहायक प्राध्यापक हिंदी
    शासकीय महाविद्यालय तमनार, रायगढ़ (छ.ग.)

  • रूढ़ीवाद पर कविता

    रूढ़ीवाद पर कविता

    उन्होंने डाली जयमाला
    एक-दूसरे के गले में
    हो गए एक-दूसरे के
    सदा के लिए
    प्रगतिशील लोगों ने
    बजाई तालियां
    हो गए शामिल
    उनकी खुशी में
    रूढ़ीवादियों ने
    मुंह बिचकाए
    नाक चढ़ाई
    करते रहे कानाफूसी
    करते रहे निंदा
    अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह की
    देते रहे दुहाई
    परम्पराओं की
    देखते ही देखते
    ढह गया किला
    सड़ी-गली
    व्यवस्था का