रक्षा बन्धन एक महत्वपूर्ण पर्व है। श्रावण पूर्णिमा के दिन बहनें अपने भाइयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं। यह ‘रक्षासूत्र’ मात्र धागे का एक टुकड़ा नहीं होता है, बल्कि इसकी महिमा अपरम्पार होती है।
कहा जाता है कि एक बार युधिष्ठिर ने सांसारिक संकटों से मुक्ति के लिये भगवान कृष्ण से उपाय पूछा तो कृष्ण ने उन्हें इंद्र और इंद्राणी की कथा सुनायी। कथा यह है कि लगातार राक्षसों से हारने के बाद इंद्र को अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया। तब इंद्राणी ने श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन विधिपूर्वक तैयार रक्षाकवच को इंद्र के दाहिने हाथ में बांध दिया। इस रक्षाकवच में इतना अधिक प्रताप था कि इंद्र युद्ध में विजयी हुए। तब से इस पर्व को मनाने की प्रथा चल पड़ी।
राधा और मीरा पर लेख
*_आखिर माताएं राधा और मीरा क्यों नहीं चाहती?_*
एक विचार प्रस्तुत किया गया कि “हर माँ चाहती है कि उनका बेटा कृष्ण तो बने मगर कोई माँ यह नहीं चाहती कि उनकी बेटी राधा बने”। यह कटु सत्य है और मैं इससे पूर्णतः सहमत हूँ। लेकिन यह विचार मात्र है विमर्श उससे आगे है। क्या राधा की माँ चाहती थी कि राधा कृष्ण की प्रेमिका बने? नहीं। क्या अन्य गोपियां जो कृष्ण के प्रेम में दीवानी थी जिनमें से अधिकांश विवाहित और उम्र में उनसे बड़ी थी उनके परिवार और पति में से किसी की ऐसी इच्छा थी की वे गोपियां कृष्ण से प्रेम करे? नहीं।
तो क्या यह विशुद्ध व्यभिचार था? या प्रेम था ? राधा और गोपियां तो फिर भी खैर है उस पागल मीरा को क्या सनक चढ़ी कि कृष्ण के हज़ारों हज़ारो साल बाद पैदा होने के बावजूद उनसे ऐसा प्रेम कर बैठी कि उनके प्रेम में घर परिवार पति राजभवन का सुख त्याग कर वृन्दावन के मंदिरों में घुंघरू बांध कर नाचने लगी एक राजसी कन्या?क्या उनका परिवार ऐसा चाहता था? नहीं। फिर क्यों राधा, गोपियां और मीरा हुई? जवाब जानने के लिए प्रेम को जानना नहीं समझना होगा उसे महसूस करना होगा।
प्रेम मुक्ति है सामाजिक वर्जनाओं से मुक्ति, लोकलाज से मुक्ति। प्रेम विद्रोह है सामाजिक रूढ़ियों से बंधनों से विद्रोह। प्रेम व्यक्ति के हृदय को स्वतंत्र करता है उसे तमाम बंधनो से मुक्त करता है। जिसे प्रेम में होकर भी सामाजिक वर्जनाओं का ध्यान है स्वयं के कुशलक्षेम का ध्यान है वह प्रेम में नहीं है केवल प्रेम होने के भ्रम में है। क्योंकि प्रेम एकनिष्ठता है “जब मैं था तो हरि नहीं, जब हरि है तो मैं नहीं’ की स्थिति प्रेम है, एकात्मता प्रेम है। कृष्ण का राधा हो जाना राधा का कृष्ण हो जाना प्रेम है।
कृष्ण के जाने के बाद राधा का कृष्ण बन भटकना प्रेम है क्योंकि कृष्ण से राधा का विलगाव संभव ही नहीं। प्रेम सामाजिक मर्यादा की रक्षा नहीं उसका अतिक्रमण है। प्रेम सही गलत फायदा नुकसान नहीं समझता इसीलिए वह प्रेम है। जिसमें लाभ हानि का विचार किया जाए वह व्यापार है प्रेम नहीं। क्या मीरा अपने एकतरफा प्रेम की परिणति नहीं जानती थी? जानती थी फिर क्यों ? क्योंकि प्रेम सोच समझकर नहीं किया जाता, प्रेम लेनदेन नहीं है कि आप बदले में प्रेम देंगे तब ही प्रेम किया जाएगा, जो नि:शर्त हो निःस्वार्थ हो वही प्रेम है। हाँ ये सच है कि माताएं राधा नहीं चाहती मगर ये भी सच है कि जो राधा कृष्ण के प्रेम में सीमाओं को लांघ लेती है तमाम विरोधों के बावजूद वह ‘आराध्या’ ‘देवी’ की तरह एक दिन पूजी जाती है।
कृष्ण से पहले राधा का नाम लिया जाता है। जो मीरा कृष्ण के प्रेम में सामाजिक आलोचना रूपी विष का प्याला पी जाती है एकदिन उसी के भजन गा कर भक्त कृष्ण को प्रसन्न करने का प्रयास करते है। क्या यह राधा और मीरा की जीत नहीं है? क्या उन्हें व्यभिचारी या विद्रोही कह कर आप कटघरे में खड़ा कर सकते है? कुछ भी मुफ़्त में नहीं मिलता सबके लिए कीमत चुकानी पड़ती है। नीलकंठ कहलाने के लिए शिव को भी विषपान करना पड़ा था, मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाने के लिए राम को अपनी प्राणों से प्रिय सीता को निर्वासित करना पड़ा था वह भी तब जब वह गर्भवती थी।
फिर प्रेम कैसे मुफ़्त में मिल सकता है? रूखमणी पत्नी होकर भी क्यों नहीं पूजी जाती है क्योंकि उसने वह अपमान वह वंचना नहीं झेली उसने उस प्रबल विरोध का सामना नहीं किया जिसका सामना राधा ने किया मीरा ने किया। माताएं राधा और मीरा होने की सलाह इसलिए नहीं देती क्योंकि वे जानती है कि देवियां रोज नहीं पैदा होती, ऐसी विद्रोहिणी सहस्त्र वर्षो में एक बार जन्म लेती है मगर जब जन्म लेती है तो इतिहास में अपनी छाप छोड़ जाती है। जिनकी मृत्यु के बाद भी मुझ जैसे कोई तुच्छ कलमकार उन पर लिख कर स्वयं को धन्य समझता है। माइकल मधुसूदन दत्त ने राधा कृष्ण के प्रेम के विषय में लिखा है-
“जिसने कभी न साधा मोहन रूप बिना बाधा,
वो ही न जान पाया है इस जग में क्यों कुल कलंकिनी हुई है राधा”
?राधे राधे?
© कमल यशवंत सिन्हा ‘तिलसमानी'(kys)
सहायक प्राध्यापक हिंदी
शासकीय महाविद्यालय तमनार, रायगढ़ (छ.ग.)