आर आर साहू के दोहे
कहाँ ढूँढता बावरे,तू ईश्वर को रोज।
करनी पहले चाहिए,तुमको अपनी खोज।।
शब्द मात्र संकेत हैं,समझ,सत्य की ओर।
सूर्य- चित्र से कब कहाँ,देखा होता भोर।।
बस प्रतीक को मानकर,हुई साधना बंद।
माया से मिलता रहा,सपने का आनंद।।
किसका दर्शन,किसलिए,चला भीड़ के संग।
चाह-राह बेमेल है,ये कैसा है ढंग।।
मंदिर में घंटी बजे,मन के छिड़े न तार।
नाद ब्रह्म कैसे जगे,सोया हो जब प्यार ।।
प्रेम-भक्ति का भी जहाँ,लगता हो बाजार ।
माता का लगता नहीं,वहाँ कभी दरबार ।।
मन में हो सद्भावना,जले प्रेम की जोत।
अखिल- सृष्टि दरबार में,माँ का दर्शन होत।।
——– R.R.Sahu
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद