गर्दिश में सितारे हों
गर्दिश में सितारे हों जिसके, दुनिया को भला कब भाता है,
वो लाख पटक ले सर अपना, लोगों से सज़ा ही पाता है।
मुफ़लिस का भी जीना क्या जीना, जो घूँट लहू के पी जीए,
जितना वो झुके जग के आगे, उतनी ही वो ठोकर खाता है।
ऐ दर्द चला जा और कहीं, इस दिल को भी थोड़ी राहत हो,
क्यों उठ के गरीबों के दर से, मुझको ही सदा तड़पाता है।
इतना भी न अच्छा बहशीपन, दौलत के नशे में पागल सुन,
जो है न कभी टिकनेवाली, उस चीज़ पे क्यों इतराता है।
भेजा था बना जिसको रहबर, पर पेश वो रहज़न सा आया,
अब कैसे यकीं उस पर कर लें, जो रंग बदल फिर आता है।
माना कि जहाँ नायाब खुदा, कारीगरी हर इसमें तेरी,
पर दिल को मनाएँ कैसे हम, रह कर जो यहाँ घबराता है।
ये शौक़ ‘नमन’ ने पाला है, दुख दर्द पिरौता ग़ज़लों में,
बेदर्द जमाने पर हँसता, मज़लूम पे आँसू लाता है।
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया