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  • होली के दोहे – बासुदेव अग्रवाल

    होली के दोहे – बासुदेव अग्रवाल

    होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय और नेपाली लोगों का त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली रंगों का तथा हँसी-खुशी का त्योहार है। यह भारत का एक प्रमुख और प्रसिद्ध त्योहार है, जो आज विश्वभर में मनाया जाने लगा है। विकिपीडिया

    होली के दोहे – बासुदेव अग्रवाल

    Radha kishna holi
    mohan radha holi

    होली के सब पे चढ़े, मधुर सुहाने रंग।
    पिचकारी चलती कहीं, बाजे कहीं मृदंग।।

    दहके झूम पलाश सब, रतनारे हो आज।
    मानो खेलन रंग को, आया है ऋतुराज।।

    होली के रस की बही, सरस धरा पे धार।
    ऊँच नीच सब भूल कर, करें परस्पर प्यार।।

    फागुन की सब पे चढ़ी, मस्ती अपरम्पार।
    बाल वृद्ध सब झूम के, रस की छोड़े धार।।

    वृन्दावन में जा बसूँ, मन में नित ये आस।
    फागुन में घनश्याम के, रहूँ सदा मैं पास।।

    माथे सजा गुलाल है, फूलों का श्रृंगार।
    वृन्दावन के नाथ पर, तन मन जाऊँ वार।।

    नर नारी सब खेलते, होली मिल कर संग।
    भेद भाव कुछ नहिं रहे, मधुर फाग का रंग।।

    फागुन में मन झूम के, गाये राग मल्हार।
    मधुर चंग की थाप है, मीठी बहे बयार।।

    घुटे भंग जब तक नहीं, रहे अधूरा फाग,
    बजे चंग यदि संग में, खुल जाएँ तब भाग।।

    होली की शुभकामना, रहें सभी मन जोड़।
    नशा यहाँ ऐसा चढ़े, कोउ न जाये छोड़।।

    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया


     

  • ऋतु बसंत आ गया

    ऋतु बसंत आ गया


              बिखरी है छटा फूलों की,
              शोभा इंद्रधनुषी रंगों की,
              कोयल की कूक कर रही पुकार,
              ऋतु बसंत आ गया,
              आओ मंगल-गान करें।
    महुए के फूलों की मदमाती बयार,
    आम्र मंजरी की बहकाती मनुहार,
    सुरमई हुए जीवन के तार,
    ऋतु बसंत आ गया,
    आओ मंगल-गान करें।
                 महकी सी लगती है हर गली,
                 कुसुमित हर्षित है हर कली,
                 आनन्दित है सब संसार,
                 ऋतु बसंत आ गया,
                 आओ मंगल-गान करें।।
    सरसों के पीले बासंती रंग से,
    टेसू-पलाश की लालिमा लिए,
    मौसम ने किया श्रृंगार ,
    ऋतु बसंत आ गया,
    आओ मंगल-गान करें।।
                       हर्ष में मग्न जनजीवन सारा,
                       पुलकित है घर आंगन प्यारा,
                       भँवरे करने लगे गुंजार,
                       ऋतु बसंत आ गया,
                       आओ मंगल-गान करें ।।     
    दुःख के बाद सुख का आना,
    पतझड़ के बाद बसंत का आना,
    कहता है जीवन का सार,
    ऋतु बसंत आ गया ,
    आओ मंगल-गान करें।
    —————-———
        पूर्णिमा सरोज
       (व्याख्याता रसायन)
          जगदलपुर(छ. ग.)
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • दिल की बात बताकर देखो

    दिल की बात बताकर देखो

    दिल की बात बताकर देखो
    मन में दीप जलाकर देखो।
    कौन किसी को रोक सका है
    नाता खास निभाकर देखो।
    आँखों की बतिया समझो तो
    लब पर मौन सजाकर देखो।
    इश्क़ सफ़ीना सबका यक सा
    थोड़ा पार लगाकर देखो।
    लोग जगत सब मैला यारों
    मन का वहम मिटाकर देखो।
    रब का एक नज़रिया सब पर
    ऐसा भाव जगाकर देखो।

    राजेश पाण्डेय अब्र
        अम्बिकापुर

  • मंज़िल पर कविता

    मंज़िल पर कविता

      सूर्य की मंज़िल अस्ताचल तक,
    तारों की मंज़िल सूर्योदय तक।
    नदियों की मंज़िल समुद्र तक,
    पक्षी की मंज़िल क्षितिज तक।

    मंजिल लक्ष्य

    अचल की मंज़िल शिखर तक,
    पादप की मंज़िल फुनगी तक।
    कोंपल की मंज़िल कुसुम तक,
    शलाका की मंज़िल लक्ष्य तक।

    तपस्वी की मंज़िल मोक्ष तक,
    नाविक की मंज़िल पुलिन तक।
    श्रम की मंज़िल सफलता तक,
    पथिक की मंज़िल गंतव्य तक।

    बेरोजगार की मंज़िल रोजी तक,
    जीवन की मंज़िल अवसान तक।
    वर्तमान की मंज़िल भविष्य तक,
    ‘रिखब’ की मंज़िल समर्पण तक।

    ®रिखब चन्द राँका ‘कल्पेश’
    जयपुर (राजस्थान)

    मनीभाई नवरत्न की १० कवितायेँ

  • उपवन की कचनार कली है

                उपवन की कचनार कली है

    उपवन की कचनार कली है ।
    घर भर में  रसधार ढ़ली  है ।।
    यह दुहिता जग भार नहीं है ।
    अवसर दो  हकदार नहीं है ।।
    समय सुधा रस सिंचित  बेटी ।
    पथ गढ़ती अब किंचित बेटी ।।
    नव  युग  प्रेरक है अब  देखो ।
    सृजन महत्व मिला सब देखो ।।
    अब खुद  जाग रही सपने में ।
    हक हित भाग रही गढ़नें में ।।
    घर  भर  बंधन  बाँध गई वो ।
    मन ममता भर लाँघ गई वो ।।
    कुछ दिन पाहुन होकर जीती ।
    सजन दुलार सखी बन पीती ।।
    पिय हिय  में वह नैहर  भाती ।
    बचपन  बाबुल भूल न पाती ।।
    नव  कुल  गोत्र  गढ़े यह  बेटी ।
    सुख भवि  नेह सदा सब देती ।।
    अगर  हँसे  घर  में शुचिता  हो ।
    बस ममता ललिता कविता हो ।।
                    ~~   रामनाथ साहू ” ननकी “
                               मुरलीडीह (छ. ग.)
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