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  • माँ पर कविता

        माँ पर कविता  

    बड़ी हसरत भरी आँखे लिए क्या
               ताकती है माँ ।
    नहीं कहती जुबाँ से वो मगर कुछ
               चाहती है माँ ।।
    बदलते रोज हम कपड़े नये फैशन
                 जमाने   के ,
    तुम्हे कुछ है पता साड़ी पुरानी
               टांकती है माँ ।
    अगर कोई कभी आये तुम्हारे घर
                जरा    देखो ,
    कमी कोई न हो अक़सर झरोखे
               झांकती है माँ ।
    अभी आया नहीं था माँ कहे लड़का
                   यकीं होगा ,
    कहीं  ठंड़  न  लगे  तुझको  जर्सी को
                 काढ़ती है माँ ।
    तुझे क्या चाहिए माँ के अलावा कौन
                     है  समझा ,
    भरे   संसार  में  सबसे    ज़ियादा
                  जानती है माँ ।
    अगर वो चाहती तो तू कभी का मर
                    गया   होता ,
    बिना ही लोभ  के  वो   दूध  अपना
                  बांटती है माँ ।
                     ~  रामनाथ साहू ” ननकी”ः
                             मुरलीडीह (छ. ग.)
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  • फागुन में पलाश है रंगों भरी दवात

    फागुन में पलाश है रंगों भरी दवात

    फागुन में पलाश है, रंगों भरी दवात ।
    रंग गुलाबी हो गया, इन रंगों के साथ ।।
    अँखियों से ही पूछ गया, फागुन कई सवाल ।
    ख्बावों का संग पा लिया, ये नींदें कंगाल ।।
    पलट-पलट मौसम तके, भौचक निरखें धूप ।
    रह-रहकर चित्त में हँसे, ये फागुन के रूप ।।
    फूलों भरी फुलवारियाँ, रस-रंगी बौछार ।
    जो भींगें वही जानता, फागुन का ये फुहार ।।
    ‘सपना’ है खोई हुई, ये फागुन की पद-चाप ।
    रंगों वाली हथकड़ी, हमें लगा गई चुपचाप ।।
    …..अनिता मंदिलवार ‘सपना’
    अंबिकापुर सरगुजा छ. ग.
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  • फागुन आ गया

         फागुन आ गया

    हर्षोल्लास था गुमशुदा
    दौर तलाश का  आ गया।
    गुम हुई खुशियों को लेकर
    फिर से  फागुन आ गया॥
    झुर्रियां  देखी जब चेहरे पर 
    लगा बुढ़ापा आ गया।
    उम्र की सीमा को तोड़कर
    उत्साही फागुन आ गया॥
    अहंकार का घना कोहरा
    एकाकीपन  छा गया।
    अंधेरों को चीरकर लो
    उजला  फागुन आ गया॥
    पहरा गहरा था गम  का
    अवसाद  मन में छा गया।
    टूटे दिलों के तार जोड़ने
    फिर से फागुन आ गया॥
    चारों तरफ टेसू पलाश हैं 
    लो उल्हास फिर  छा गया।
    फुहार प्रेम की संग लेकर ये
    फिर से  फागुन  आ गया।
    मधु सिंघी
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  • बासंती फागुन

    ⁠⁠⁠ बासंती फागुन

    ओ बसंत की चपल हवाओं,
    फागुन का सत्कार करो।
    शिथिल पड़े मानव मन में
    फुर्ती का  संचार करो।1
    बीत गयी है आज शरद ऋतु,
    फिर से गर्मी आयेगी.
    ऋतु परिवर्तन की यह आहट,
    सब के मन को भायेगी।2
    कमल-कमलिनी ताल-सरोवर,
    रंग अनूठे दिखलाते।
    गेंदा-गुलाब टेसू सब मिलकर
    इन्द्रधनुष से बन जाते।3
    लदकर मंजरियों से उपवन,
    छटा बिखेरें हैं अनुपम।
    पुष्पों से सम्मोहित भँवरें,
    छेड़ें वीणा सी सरगम।4
    अमराइयों की भीनी सुगंध सँग
    कोकिल भी करती वंदन ।
    उल्लासित मतवाले होकर
    झूम उठे सबके तन मन।5
    बजते ढोलक झांझ-मंजीरे
    रचतें हैं इक नव मंजर।
    फागुन की सुषमा में डूबे
    जलचर ,नभचर और थलचर।6
    पीली सरसों है यौवन पर,
    मंडप सी सज रही धरा ।
    लहराती भरपूर फसल का,
    सब नैनों में स्वप्न भरा।।
    पाल लालसा सुख-समृद्धि की,
    कृषक प्रतीक्षित हैं चँहुं ओर।
    योगदान दें राष्ट्र प्रगति में,
    सभी लगा कर पूरा जोर।8
    प्रवीण त्रिपाठी, 13 मार्च 2019
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  • हसरतों को गले से लगाते रहे

    हसरतों को गले से लगाते रहे

    हसरतों को गले से लगाते रहे,
    थोड़ा थोड़ा सही पास आते रहे..
    आप की बेबसी का पता है हमें,
    चुप रहे पर बहुत ज़ख़्म खाते रहे..
    इस ज़माने का दस्तूर सदियों से है,
    बेवजह लोग ऊँगली उठाते रहे..
    मेरी दीवानगी मेरी पहचान थी,
    आग अपने ही इसमें लगाते रहे..
    इश्क़ करना भी अब तो गुनह हो गया,
    हम गुनहगार बन सर झुकाते रहे..
    तुमको जब से बनाया है अपना सनम,
    बैरी दुनिया से खुद को छुपाते रहे..
    इश्क़ की अश्क़ सदियों से पहचान है,
    तेरी आँखों के आँसू चुराते रहे..
    तुमको यूँ ही नहीं जान कहते हैं हम,
    जान ओ दिल सिर्फ़ तुमपे लुटाते रहे..
    ख़्वाब मेरे अधूरे रहे थे मगर,
    हम तो आशा का दीपक जलाते रहे..
    है ख़ुदा की इनायत, है फ़ज़लो करम,
    अब क़दम दर क़दम वो मिलाते रहे..
    हम भी चाहत में उनके दिवाने हुए,
    वो भी ‘चाहत’ में हमको लुभाते रहे..


    नेहा चाचरा बहल ‘चाहत’
    झाँसी
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद