पर मेरा लाल नहीं हो वह -बाबू लाल शर्मा बौहरा
( १६ मात्रिक )
भगत सिंह तो हों भारत में,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
शेखर,सुभाष ऊधम भी हो
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
क्रांति स्वरों से धरा गुँजा दे,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
सरकारों की नींद उड़ा दे,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
संसद पर भी बम फोड़ दे,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
फाँसी के फंदे से झूले,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
देश धरा पर कुरबानी दे,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
आतंकी से लड़े मरण तक
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
अपराधी का खूँ पी जाए,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
दुष्कर्मी का गला घोंट दें,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
चोर,डकैतों से भिड़ जाए,
पर मेरा लाल नहीं हो वह।
इंकलाब के नारे गाए,
पर मेरा लाल नही हो वह।
लाल हमारा मौज करे बस,
नेता, अफसर बन जाए।
लाल शहीद और के होंए
फाँसी,गोली कुछ भी खाएँ।
ऐसी जब सोच हमारी हो,
फिर हाल वतन के क्या कहना।
इंसानी फितरत ऐसी हो,
फिर हाल चमन के क्या कहना।
जब नाक गड़ा कर रहना है,
फिर तौबा तौबा क्या पढ़ना।
जब हृदय नहीं हो पत्धर हो,
मेरा कविताई क्या गढ़ना।
बहिन बेटियाँ खतरे में,हों
तो गीत अहिंसा क्या गाना।
जब रोज अस्मतें लुटती हों,
जीना कैसे धीरज आना।
जब रहना घोर अँधेरों मे,
जलसों को रोशन क्या करना।
जब नेत्र पट्टियाँ बाँध रखी,
तो क्रांति मार्ग पग क्या धरना।
जब लोहू पतला पड़ जाए,
कवियों को कविता क्या कहना।
जब आँखो का जल मर जाए,
फिर गंगा यमुना क्या बहना।
बाबू लाल शर्मा, बौहरा ‘विज्ञ’