नवगीत- प्रीत शेष है मीत धरा पर
प्रीत शेष है मीत धरा पर
रीत गीत शृंगार नवल।
बहे पुनीता यमुना गंगा
पावन नर्मद नद निर्मल।।
रोक सके कब बंधन जल को
कूल किनारे टूट बहे
आँखों से जब झरने चलते
सागर का इतिहास कहे
पके उम्र के संग नेह तब
नित्य खिले सर मनो कमल।
प्रीत……………………..।।
सरिताएँ सागर से मिलती
नेह नीर की ले गगरी
पर्वत पर्वत बाट जोहता
नेह सजा बैठी मँगरी
धरा करे घुर्णन परिकम्मा
दिनकर प्रीत पले अविरल।
प्रीत……………………..।।
चंदा पावन प्रीत निभाता
धरा बंधु नर का मामा
पहन चूनरी ओढ़ चंद्रिका
नेह बाँधती नित श्यामा
प्रेम पिरोये मन में आशा
भाव चंद्रिका सा उज्ज्वल।
प्रीत…………………….।।
संग तुम्हारे मैं गाऊँ अब,
तुम भी छंद लिखो मन से
बनूँ राधिका मुरली धर तुम
लिपट रहूँ मानस तन से
रख मन चंगा घर में गंगा
हुए केश शुभ शुभ्र धवल।
प्रीत……………………।।
✍ ©
बाबू लाल शर्मा *विज्ञ*
सिकंदरा,दौसा, राजस्थान