शौचालय विशेष छतीसगढ़ी कविता
सुधारू केहे-“कस रे मितान!
तोला सफई के,नईये कछु भान।
तोर आस-पास होवथे गंदगी
इही च हावे सब्बो बीमारी के खान।”
बुधारू कहे-“मय रेहेंव अनजान।
लेवो पकड़त हावों मोरो दूनों कान।
लेकम येकर सती, का करना चाही संगी ?
अहू बात के, कर दो बखान।
सुधारू कहे-“हमर सरकार ल
महतारी मोटियारी के चिंता हावे।
शौचालय बना लेवो जम्मो
ये मे अब्बड़ सुभीता हावे ।
रात-बिकाल के संशो नी,बिछी-कुछी के डर।
सफ्फा रेहे हामर घर, अऊ सफ्फा रेहे डहर।
बीमारी होही अब्बड़ दूर ,खुसियाली छाही।
देस-बिदेस म हामर गाँ भी प्रसिद्धि पाही।”
सुधारू के कहे म बुधारू
एक चीज मन म पालय हे।
अऊ चीज हावे रे संगी
“जहाँ सोच हे वहाँ शौचालय हे।”
(रचयिता:- मनी भाई)