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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०दुर्गेश मेघवाल के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • मेरे गिरधर, मेरे कन्हाई जी / रचयिता:-डी कुमार–अजस्र

    मेरे गिरधर, मेरे कन्हाई जी / रचयिता:-डी कुमार–अजस्र

    मेरे गिरधर मेरे कन्हाई जी.

    goverdhan shri krishna

    जब भी आवाज दूं चले आना ,
    मेरे गिरधर , मेरे कन्हाई जी ।
    रीत प्रीत की भूल न जाना ,
    जो भक्त-भगवान बनाई जी ।

    तन-मन प्यासा जन्म-जन्म से,
    दरस को तरसे ये अखियां।
    बोल बोल-के छेड़े है जग ,
    ताने देती है सखियां ।
    लाज मेरी भी अब तुम्हारे हाथों,
    आकर लाज बचाओ जी ।
    जब भी आवाज दूं चले आना ,
    मेरे गिरधर , मेरे कन्हाई जी ।
    रीत प्रीत की भूल न जाना ,
    जो भक्त-भगवान बनाई जी ।

    भक्त प्रहलाद ,राधा और मीरा ,
    पुकार न खाली गई कभी ।
    एक आवाज पर दौड़ पड़े तुम,
    भक्त पुकारे तुमको जब भी ।
    भरी सभा जब द्रोप पुकारी ,
    लाज बचाई आकर जी ।
    जब भी आवाज दूं चले आना ,
    मेरे गिरधर , मेरे कन्हाई जी ।
    रीत प्रीत की भूल न जाना ,
    जो भक्त-भगवान बनाई जी ।

    तीन लोक मित्र पर वारे ,
    गूढ़ मित्रता सिखलाई जी।
    मित्र सुदामा गरीब जन्म का,
    पर मित्रता तुमने निभाई जी।
    मित्र न कोई छोटा-बड़ा हो ,
    मित्र ‘ अजस्र ‘ बनाई जी ।
    जब भी आवाज दूं चले आना ,
    मेरे गिरधर , मेरे कन्हाई जी ।
    रीत प्रीत की भूल न जाना ,
    जो भक्त-भगवान बनाई जी ।

    ✍️✍️ *डी कुमार –अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी/राज.)*

  • माँ पर कविता हिंदी में

    माँ पर कविता हिंदी में

    यहाँ माँ पर कविता हिंदी में लिखी गयी है .माँ वह है जो हमें जन्म देने के साथ ही हमारा लालन-पालन भी करती हैं। माँ के इस रिश्तें को दुनियां में सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है।

    mother their kids
    माँ पर कविता

    माँ मुझको गर्भ में ले ले

    हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
    बाहर मुझको डर लागे।
    देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
    मुझको अब जन-जन लागे।
    अधपक कच्ची कलियों को भी,
    समूल ही डाल से तोड़ दिया।
    आत्मा तक को नोंच लिया फिर,
    जीवित माँस क्यों छोड़ दिया।
    खुद के घर भी अरक्षित बनकर,
    अपना सब कुछ लुटा बैठी।
    गैरों की क्या बात कहूं मैं,
    अपनों ने भाग्य निचोड़ लिया।
    मेरी रक्षा कौन करेगा ,
    कम्पित मन सोता जागे ।
    हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
    बाहर मुझको डर लागे।
    देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
    मुझको अब जन-जन लागे।

    देह की पूंजी तुझसे पाई ,
    रक्षा इसकी कैसे करूँ ।
    नौ माह में बनी सुरक्षित ,
    अब क्या ,कैसे प्रबंध करूँ।
    जन्म बाद के पल-पल,क्षण-क्षण,
    मुझको डर क्यों लगता है।
    युवपन तक भी पहुंच ना पाऊं,
    उससे पहले जीवित मरुँ ।
    राक्षस-भेड़िए क्या संज्ञा दूं ?
    दया न क्यों, उन मन जागे ।
    हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
    बाहर मुझको डर लागे।
    देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
    मुझको अब जन-जन लागे।

    हे ! गिरधारी, लाज बचाने ,
    कहां-कहां तुम आओगे।
    अगणित द्रोपदियाँ बचपन लुट गई,
    कैसे सबको बचाओगे ?
    भरी सभा-सा समाज यह देखें,
    बैठा है आंखें मूंदे ।
    आह वो भरता, खुद ही डरता ,
    अब कैसे इसे जगाओगे ।
    मेरा सहारा किसको मानूँ ,
    कौन रहे मेरा होके ।
    हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
    बाहर मुझको डर लागे।
    देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
    मुझको अब जन-जन लागे।

    सीता तो अपहरित होकर भी,
    लाज तो फिर भी बचा पाई।
    मां की गोद जो दूर हुई मैं ,
    जानू क्या मैं ,कौन कसाई।
    रावण से कई गुना है बढ़कर,
    उनका पाप,क्योंन जग डोले।
    शेषनाग , विष्णु अवतारी ,
    बोलो, कैसे धरा बचाई।
    खून हमारे सनी हुई वह ,
    डर-डर कर खुद ही काँपे।
    हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
    बाहर मुझको डर लागे।
    देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
    मुझको अब जन-जन लागे।

    ✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल)*

  • विकलांग नहीं दिव्यांग है हम

    विकलांग नहीं दिव्यांग है हम

    3 दिसम्बर दिव्यांग दिवस :- पर सभी दिव्यांग जनों को सादर समर्पित

    विकलांग नहीं दिव्यांग है हम

    आँखे अँधी है, कान है बहरे ,
    हाथ पांव भी भले विकल ।
    वाणी-बुद्धि में बनी दुर्बलता ,
    विश्वास-हौसला सदा अटल ।

    विकलांग नहीं दिव्यांग है हम

    अक्षमताओं से क्षमता पैदा कर ,
    विकलांग से हम दिव्यांग कहाए ।
    परिस्थितियों से लोहा लेकर ही ,
    काँटो-पथ पर फूल खिलाए ।

    तन दुर्बल है, पर ‘एक-इकाई’ ,
    आठ अरब की संख्या पार ।
    लक्ष्य बड़े ‘हाकिन्स’ से ऊँचे ,
    गहन अंतरिक्ष या समुद्र अपार ।

    कुछ फलने ,कुछ लेने परीक्षा ,
    उसने हमें ऐसा है बनाया ।
    पर पँखो में अरमान हौसला ,
    लक्ष्य हमें आसमान छुवाया ।

    एक अपूर्णता देकर उसने ,
    तीन दिव्यता हममें भर दी ।
    मेहनत कुछ, उसकी रेहमत से ,
    आज जीवन खुशहाली कर दी ।

    हमें हौसलों से, पहुँच बनानी ,
    सृष्टि के कण-कण जीवन ।
    खुशहाल प्रकृति है ,हमें सजानी ,
    तन-मन मानव में संजीवन ।

    कहीं नहीं हम,किसी से कमतर ,
    भले कोई सहारा न हो ।
    मन विश्वास ले, बढ़ते चले हम ,
    तूफान भले ,किनारा न हो ।

    दया के हम आकांक्षी नहीं है ,
    जीना चाहे स्वाभिमान से ।
    ‘अजस्र ‘ उमंग, हममें लहरों सी,
    मन पंख परवाज़, उड़ान चले ।

    डी कुमार–अजस्र (दुर्गेश मेघवाल, बून्दी/राज.)

  • कागजी तितली / डी कुमार –अजस्र

    कागजी तितली / डी कुमार –अजस्र

    कागजी तितली / डी कुमार –अजस्र

    ठिठुरन सी लगे ,
    सुबह के हल्के रंग रंग में ।
    जकड़न भी जैसे लगे ,
    देह के हर इक अंग में ।।

    कागजी तितली / डी कुमार –अजस्र

    उड़ती सी लगे,
    धड़कन आज आकाश में।
    डोर भी है हाथ में,
    हवा भी है आज साथ में।

    पर कागजी तितली…..
    लगी सहमी सी
    उड़ने की शुरुआत में ।
    फैलाये नाजुक पंख ,
    थामा डोर का छोर…
    हाथ का हुआ इशारा,
    लिया डोर का सहारा …
    डोली इधर से उधर,
    गयी नीचे से ऊपर
    भरी उमंग से ,
    उड़ने लगी
    जब हुई उड़ती तितलियों के ,
    साथ में ,
    बतियाती जा रही है ,
    पंछियों के पँखों से ….
    होड़ सी ले रही है,
    ज्यों आसमानी रंगो से
    हुई थोड़ी अहंकारी,
    जब देखी अपनी होशियारी ।
    था दृश्य भी तो मनोहारी,
    ऊँची उड़ान थी भारी ।

    डोर का भी रहा सहारा ,
    हाथ करता रहा इशारा ,
    तभी लगी जाने किसकी नजर ,
    एक पल में जैसे थम गया प्रहर ,
    लग रहे थे तब हिचकोले ,
    यों लगा जैसे संसार डोले ।

    डोर से डोर थी ,
    अब कट गयी ।
    इशारे की बिजली भी ,
    झट से गयी ।
    अब तो हवा भी न दे पायी सहारा
    घड़ी दो घड़ी का था ,
    अब खेल सारा ।
    ऊँची ही ऊँची उड़ने वाली ,
    अब नीचे ही नीचे आयी ।
    जो आँखे मदमा रही थी ,
    अब तक…..
    उनमें अंधियारी थी छायी ।

    तभी उसे लगा ,
    अचानक एक तेज झटका
    डोर लगी तनी सी,
    लगे ऐसा जैसे मिल गया ,
    जो सहारा था सटका।
    डोर का पुनः मिल रहा था ,
    ‘ अजस्र ‘ सहारा ।
    हाथ और थे पर ,
    मिल रहा था बेहतर इशारा ।
    फिर उडी आकाश में ,
    तब बात समझ ये आई
    बिना सहारे ,बिना इशारे ,
    न होगी आसमानी चड़ाई ।
    जीवन सार समझ आया तो,
    वो हवा में और अच्छे से लहराई।

     ✍️✍️ *डी कुमार –अजस्र (दुर्गेश मेघवाल, बून्दी/राज.)
  • विश्वकप क्रिकेट पर कविता

    विश्वकप क्रिकेट खेल का आयोजन अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) द्वारा हर चार साल में किया जाता है, जिसमें प्रारंभिक योग्यता के दौर में फ़ाइनल टूर्नामेंट तक होता है। यह टूर्नामेंट दुनिया के सबसे ज्यादा देखे जाने वाले खेल आयोजनों में से एक है और इसे आईसीसी द्वारा “अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट कैलेंडर का प्रमुख कार्यक्रम” माना जाता है।

    विश्वकप क्रिकेट पर कविता

    विश्वकप क्रिकेट पर कविता

    भारतीय क्रिकेट टीम को विश्व कप 2023 जीत के आह्वान के साथ सभी भारतीय क्रिकेट प्रशंसकों को समर्पित…..

    विश्वकप जीत के दिखला दो

    जीत के दिखला दो….,
    अब के जीत के दिखला दो…..।
    जीत के दिखला दो…..,
    विश्वकप जीत के दिखला दो…..।

    टीम रोहित के महादिग्गजों,
    क्रिकेट महासपूतों तुम ।
    बेट-बॉल का दिखा दो जलवा ,
    विश्वखेल में श्रेष्ठतम तुम ।
    भारत आयोजित विश्वकप को,
    बाहर को अब, मत जाने दो ….।
    जीत के दिखला दो….।
    अब के जीत के दिखला दो ….।

    लोहा अपना समस्त विश्व में,
    भारत का तुम मनवाओ ।
    दुनिया ने जो ,कभी ना देखा ,
    क्रिकेट ऐसा दिखलाओ ।
    विश्व ऊपर अपना ये तिरंगा ,
    क्रिकेट में भी लहरा दो …।
    जीत के दिखला दो ….

    द्रविड़ की ये ड्रीम इलेवन ,
    विश्वकप सरताज बने …।
    हार्दिक, विराहु (विराट,राहुल),
    शुभ-बुमराह(शुभमन) से ,
    अक्षर ,शमी भी यही कहे ।
    किशन-रवि(रविंद्र,किशन)
    ईशान-ठाकुर तुम ,
    सिराज-सूर्य को उजला दो …।
    जीत के दिखला दो …..

    क्वार्टर ,सेमी से बढ़कर तुमको ,
    फाइनल जीत के लाना है ।
    लक्ष्य भले कितना भी असंभव ,
    तुमको वह तो पाना है ।
    लक्ष्य को करके ‘ अजस्र ‘ विजित तुम,
    विश्वकप अब जितला दो …।
    जीत के दिखला दो….,
    अब के जीत के दिखला दो…..।
    जीत के दिखला दो…..,
    विश्वकप जीत के दिखला दो…..।

    विश्वकप क्रिकेट पर कविता
    विश्वकप क्रिकेट पर कविता
      ✍️✍️ *डी कुमार--अजस्र(दुर्गेश मेघवाल ,बून्दी(राज.)*

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