माँ पर कविता हिंदी में

यहाँ माँ पर कविता हिंदी में लिखी गयी है .माँ वह है जो हमें जन्म देने के साथ ही हमारा लालन-पालन भी करती हैं। माँ के इस रिश्तें को दुनियां में सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है।

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माँ पर कविता

माँ मुझको गर्भ में ले ले

हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।
अधपक कच्ची कलियों को भी,
समूल ही डाल से तोड़ दिया।
आत्मा तक को नोंच लिया फिर,
जीवित माँस क्यों छोड़ दिया।
खुद के घर भी अरक्षित बनकर,
अपना सब कुछ लुटा बैठी।
गैरों की क्या बात कहूं मैं,
अपनों ने भाग्य निचोड़ लिया।
मेरी रक्षा कौन करेगा ,
कम्पित मन सोता जागे ।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।

देह की पूंजी तुझसे पाई ,
रक्षा इसकी कैसे करूँ ।
नौ माह में बनी सुरक्षित ,
अब क्या ,कैसे प्रबंध करूँ।
जन्म बाद के पल-पल,क्षण-क्षण,
मुझको डर क्यों लगता है।
युवपन तक भी पहुंच ना पाऊं,
उससे पहले जीवित मरुँ ।
राक्षस-भेड़िए क्या संज्ञा दूं ?
दया न क्यों, उन मन जागे ।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।

हे ! गिरधारी, लाज बचाने ,
कहां-कहां तुम आओगे।
अगणित द्रोपदियाँ बचपन लुट गई,
कैसे सबको बचाओगे ?
भरी सभा-सा समाज यह देखें,
बैठा है आंखें मूंदे ।
आह वो भरता, खुद ही डरता ,
अब कैसे इसे जगाओगे ।
मेरा सहारा किसको मानूँ ,
कौन रहे मेरा होके ।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।

सीता तो अपहरित होकर भी,
लाज तो फिर भी बचा पाई।
मां की गोद जो दूर हुई मैं ,
जानू क्या मैं ,कौन कसाई।
रावण से कई गुना है बढ़कर,
उनका पाप,क्योंन जग डोले।
शेषनाग , विष्णु अवतारी ,
बोलो, कैसे धरा बचाई।
खून हमारे सनी हुई वह ,
डर-डर कर खुद ही काँपे।
हे ! माँ मुझको गर्भ में ले ले,
बाहर मुझको डर लागे।
देह-लुटेरे , देह के दुश्मन,
मुझको अब जन-जन लागे।

✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल)*

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