Tag: #निमाई प्रधान ‘क्षितिज’

यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर०निमाई प्रधान ‘क्षितिज’ के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • हाइकु त्रयी

    हाइकु त्रयी

    हाइकु त्रयी

    हाइकु
    hindi haiku || हिंदी हाइकु

    [१]
    कोहरा घना
    जंगल है दुबका
    दूर क्षितिज!

    [२]
    कोहरा ढांपे
    न दिखे कुछ पार
    ओझल ताल

    [३]
    हाथ रगड़
    कुछ गर्माहट हो
    कांपता हाड़

    निमाई प्रधान’क्षितिज’*

  • धूप की ओट में बैठा क्षितिज / निमाई प्रधान’क्षितिज’

    धूप की ओट में बैठा क्षितिज / निमाई प्रधान’क्षितिज’

    धूप की ओट में बैठा क्षितिज /निमाई प्रधान’क्षितिज’

    धूप की ओट में बैठा क्षितिज / निमाई प्रधान'क्षितिज'

    रवि-रश्मियाँ-रजत-धवल
    पसरीं वर्षान्त की दुपहरी
    मैना की चिंचिंयाँ-चिंयाँ से
    शहर न लगता था शहरी
    वहीं महाविद्यालय-प्रांगण में
    प्राध्यापकों की बसी सभा थी
    किंतु परे ‘वह’ एक-अकेला
    छांव पकड़ना सीख रहा था !

    धूप की ओट में बैठा ‘क्षितिज’
    ख़ुद के भीतर जाना सीख रहा था !!

    मधु-गीत लिये , मधु-रंग लिये
    दिये वर्ष ने कई प्रीति-प्रस्ताव
    पीछे वैभव-सुख छूटा जाता था
    किंतु न मोड़ा ‘उसने’ जीवन-प्रवाह
    जहाँ जाना उसे था, ‘वह’ चले चला..
    नित-नित आगे बढ़ना सीख रहा था !

    धूप की ओट में बैठा ‘क्षितिज’
    ख़ुद के भीतर जाना सीख रहा था !!

    कितने पराये यहाँ अपनों के वेश में
    कितने अजनबियों का साथ मिला
    प्रतिक्षण घात मिला , संघात मिला
    विश्वासों को रह-रह आघात मिला
    हर चोट, हर धोखे से संभलता ‘वह’
    चेहरों के मुखौटे गिनना सीख रहा था !

    धूप की ओट में बैठा ‘क्षितिज’
    ख़ुद के भीतर जाना सीख रहा था !!


    *-@निमाई प्रधान’क्षितिज’*
        रायगढ़,छत्तीसगढ़
         31/12/2018

  • भगवान पर कविता

    भगवान पर कविता: किसी भी धर्म में खास कर के हिन्दू धर्म में भगवानो पर बढ़ी आस्था रखी जाती है और इन भगवानो पर वे बहुत ज्यदा विस्वास रखते है और इस आस्था को बनाये रखे कविता बहार आप के लिए कुछ कविताएँ बताती है जो इस प्रकार है.

    भगवान पर कविता

    शब्दों से परे है वह

    भावों के सर्गों में स्पंदित
    परमाणुओं का लय है !
    शब्दों से परे है वह…
    किंतु अर्थों का अवयव है !!

    पंचभूतों के परम-मिलन से
    पल्लवित होते नव कोंपल
    पालन करती प्रकृति उन्हें
    निज आँचल में प्रतिपल
    पुष्पित होते फिर फल देते
    तना तानकर गर्वित होते
    फिर धीरे-धीरे उनके सारे
    पीत-पर्ण झरते जाते हैं
    पंचभूतों में मिलने का वे
    रहस्य यही बतलाते हैं..
    कि सृष्टि-चक्र की शाश्वतता में
    यहीं सृजन है,यहीं विलय है !!

    शब्दों से परे है वह…
    किंतु अर्थों का अवयव है !!

    रंग-रंग के रंगों से रंगी,
    रंगरेज़ों की दुनिया में…
    मन को हरते सतरंग हैं यहाँ
    कुछ फीके और कुछ गहरे ,
    पनघट-पनघट रूनझुन-रूनझुन
    हैं लालिमा लिये क्षितिज पर ठहरे
    वहीं कमलिनी-कमल जल में…
    खिलने को हैं आतुर मानो
    परंतु प्रतीक्षा में पनिहारन-से
    ताकें अधडूबा-अधनिकला सूरज
    जो क्षितिज-पट से झांकता कहता
    मुझे भी प्रातः ओ’सांझ का संशय है !!

    शब्दों से परे है वह…
    किंतु अर्थों का अवयव है !!

    निमाई प्रधान ‘क्षितिज’

    जो भी चाहा ख़ुदा से मिला ही नहीं

    _ज़िंदगी से कोई अब गिला ही नहीं,_
    _जो भी चाहा ख़ुदा से मिला ही नहीं_

    _इक दफा बेवफा ने जो लूटा चमन,_
    _प्यार का फूल फिर से खिला ही नहीं_

    _चल सके जो कई मील सबके लिये,_
    _अब ज़माने में वो काफ़िला ही नहीं_

    _लोग अपना कहें और धोखा न दे,_
    _दोस्ती का वो अब सिलसिला ही नहीं_

    _फिर से मिलने का वादा किया था जहाँ,_
    _आज तक मैं वहाँ से हिला ही नहीं_

    *चन्द्रभान पटेल*

  • एक कविता हूँ

    एक कविता हूँ!

    उंगलियों में कलम थामे
    सोचता हूँ…
    कि कहीं
    है वह ध्वनि
    जो उसे ध्वनित करे…!
    मैं अंतरिक्ष में तैरता..
    कल्पनाओं में
    छांटता हूँ
    शब्द
    मीठे -मीठे
    कोई शब्द मिलता नहीं मुझे
    जो इंगित करे उसे
    बस….
    उंगलियों से ही उसे –
    उकेरता हूँ …
    मिटाता हूँ ।
    उंगलियों में कलम थामे…
    मैं सोचता हूँ ।।
    उसकी खूबसूरती
    वो भोलापन
    तो मुझपे क़यामत ढाई
    न कोई उपमा सूझी
    न अतिशयोक्ति ही काम आई
    जब भी लिखना चाहूँ
    उसपे कोई कविता –
    न कोई शब्द सूझता है…
    न भाता है
    और मैं…
    बस लकीरें ही खींचते जाता हूँ ।
    उंगलियों में कलम थामे…
    मैं सोचता हूँ ।।
    उन आड़ी-तिरछी लकीरों में भी
    वो ही तो मुझको दिखती है…
    जो आहिस्ता से कानों में मेरे कहती है–
    ‘इन पन्नों पर खींची है तुमने
    जो आड़ी-तिरछी रेखाएँ …
    वो मैं ही तो हूँ ‘
    “एक कविता हूँ “!!!

    -@निमाई प्रधान’क्षितिज’
          03/09/2016

  • निःशब्द तो नहीं

    निःशब्द तो नहीं


    [१]
    निःशब्द तो नहीं !
    किंचित् भी नहीं !!
    बस…
    नहीं हैं आज
    शहद या गुलाबी इत्र में
    डुबोये
    सुंदर-सुकोमल-सुगंधित शब्द
    नहीं हैं आज
    कर्णप्रिय,रसीले,
    बांसुरी के तानों संग
    गुनगुनाते अल्फाज़…
    सब जल गये !
    भस्म हो गये
    सारे के सारे
    अंतरिक्ष में विचरते
    छंद
    टूट-फूटकर
    बिखर गये सारे अलंकार
    निस्सार हो गयीं
    सारी व्यंजनाएँ
    लक्षणा भी हो गयीं सारी
    महत्त्वहीन..
    अब
    बचे हैं तो केवल
    उबड़-खाबड़
    कंटकाकीर्ण
    क्षिति पर पांव जमाते
    ……कुछ शब्द
    जो टटोलते हैं
    पैरों से अपना ज़मीन
    पैरों के अंगूठों से ही
    गाड़ते हैं अपना वज़ूद
    खिलते हैं जहाँ
    नागफनी के रक्ताभ टोहे
    जो रोते हैं…
    अक्सर..
    फफक-फफककर रोते हैं ,
    बड़बड़ाते हैं कुछ अस्फुट शब्द
    फिर चीत्कार उठते हैं ,
    छिटकती हैं-
    उनकी रक्तिम आँखों से
    पीली-नारंगी गरल की बूँदें
    क़लम भी फुफकारती-
    उगलती है चिंगारियाँ..
    उसके नीब-
    नाखूनों-से
    तीखे-नुकीले-नाखूनों-से
    चिरते हैं इतिहास के पन्ने..
    आज के परिवेश से नाख़ुश
    विचारोन्माद में
    क़दम-दर-क़दम
    करते कटाक्ष
    ठहराते कुसूरवार
    पुरानी पीढ़ियों को ही
    जड़ देते उनपर
    अपनी सारी असफलताएँ
    फिर वर्तमान के खाते पर
    उकेरते हैं
    भविष्य का लेखा-जोखा..
    परन्तु असुरक्षाबोध से चिंतित
    दबी-दबाई सांसारिक कुण्ठाएँ
    कभी-कभी कुलबुलाती हैं
    अतः दुर्वासनोत्कर्ष में
    दीवार की पीठ पर
    खींच जाती हैं स्वाभाविक
    और चुपचाप ओढ़ लेती हैं
    सभ्यता की साड़ियाँ
    पर…
    निःशब्द तो नहीं !
    किंचित् भी नहीं।।
    [२]
    मेरे अंदर का ‘क्षितिज’
    जो गुलाबों से इश्क़ करता है..
    जो पीछा करता है
    बीहड़ों में भी-
    मदहोश करने वाली
    सुरीली-फाहेदार-मीठी आवाज़ों का
    जो लोकगीतों में…
    तलाशता है
    पुरातन संस्कृतियों की नवीनता
    अब कौओं के गानों से
    सुर मिलाता
    सूँघता है आक के फूल
    आहिस्ता-आहिस्ता
    मौन हो जाता है कभी..
    कभी बड़बड़ाता है
    संवेदनाहीन नहीं
    सारहीन भी नहीं
    बिलकुल नहीं..
    केवल अर्थहीनता में
    वह
    चीखता है..चिल्लाता है
    जिन्हें
    यह सभ्य समाज
    अपशब्द कहता है,
    देखता है
    टेढ़ी नज़रों से
    पीठ पीछे कसता है ताने
    देता है
    विक्षिप्ता के नये-पुराने उपमान
    जो स्वयं असभ्यता की गहरी
    नालियों से निकलती
    रूढ़ियों के सढ़ी-बूढ़ी बदबूओं में
    है सराबोर…
    सीख गया है
    काले को सफ़ेद कहना
    और कुरीतियों में
    संस्कृति ढूँढ़ना
    जो सीख गया है
    निज स्वार्थ के लिये
    बलि को प्रसाद कहना
    यह सभ्य समाज
    किसके इशारे पर चलता है?
    किसके फरमान पर
    किसी विक्षिप्ता को
    ‘टोनही’ की संज्ञा दे
    बीच चौराहे पर
    ज़िंदा ही जला देता है??
    यह सभ्य समाज…
    किसके आग्रहानुग्रह से
    किसी वैश्या को
    साध्वी मान पूजने लगता है ??
    विरोधाभासों के पेण्डुलम में
    झूलता यह सभ्य समाज
    अपनी चाल बदल-बदल
    करता है आतंकित
    पर…
    निःशब्द तो नहीं!
    किंचित् भी नहीं ।।
    [३]
    चूहों की मूँछों से
    बुहारते प्रजातंत्र के पथ
    झाड़ते वहीं सूक्ष्मातिसूक्ष्म
    प्लेग के कीटाणु
    दूषित मानसिकता का फैलाव
    लपेटता अपने में
    देश का निजत्त्व
    संक्रमित..
    संपूर्ण मीडिया के तार
    सब दोषी!
    दोषी स्वयं वही
    जो विनाश के मंज़र को
    लीला समझे,
    दोषी स्वयं वह भी
    जो युद्ध की अनिवार्यता को
    संविधानों की काली पट्टियों से
    ढंकना चाहे,
    दोषी वह भी
    जो निर्लिप्त रहे शांति या युद्ध से
    सब दोषी
    सब के सब दोषी
    जी हाँ सब दोषी ।
    भीड़ चाहे सच को झूठ बना दे
    या झूठ को सच
    शिव कुछ नहीं..
    सुंदर यहाँ कुछ भी नहीं
    सत्य भी-
    मिथ्यावृत्त असंख्य परतों में
    दबा-कसमसाता-बिलखता..
    चीखने की भंगिमाएँ बनाता है
    केवल
    पर बेआवाज़!
    कोई नहीं सुन पाता
    कोई सुन ही नहीं पाता
    उसकी चीख
    जो
    सदियों से दबी-कुचली
    झूठ के खंडहरों के-
    मलबों के बीच
    सांस लेती
    कभी-कभी अकेले में..,
    चारों तरफ़ के सन्नाटे को भेदती
    भर्र-भर्र
    लगाती है चक्कर
    चमगादड़ों-सी
    कभी इधर
    कभी उधर
    कभी गोल-गोल
    स्वयं के परा-ध्वनियों में
    गूँथती है डर…!!
    लोग उन परा-ध्वनियों के
    तात्पर्यों से दूर
    अकिंचन बन
    चुपचाप बदल लेते हैं
    अपने मूल्य
    किंतु..
    वे सत्य के तात्पर्य,
    वे ध्वनियाँ
    वो चीख…
    निःशब्द तो नहीं !
    किंचित् भी नहीं ।।
      ©सर्वाधिकार सुरक्षित!
    -@निमाई प्रधान’क्षितिज’
            रायगढ़,छत्तीसगढ़
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद