साल आता रहा दिन गुजरता रहा
साल आता रहा दिन गुजरता रहा
चाँद लाचार होकर पिघलता रहा।।
उनको रोटी मिली ना रही आबरु
वो तो रुपये की सूरत बदलता रहा।।
दूर मुझसे रहे खाई गहरी रही
वक़्त मुझसे मुझी में सिमटता रहा।।
पांच वर्षों में इक बार कम्बल बंटे
ठंढ से उनका कस्बा क्यूँ डरता रहा।।
उनकी नज़रों का है कुछ असर इस क़दर
जिस्म जड़ हो गया, होश उड़ता रहा।।
कब से जलता है दिल उनकी यादों में यूं
उनके आते ही लोहू ये जमता रहा।।
इस नए साल में कुछ भी बदलेगा क्या
सूफ़ी तारीख कैलेंडर बदलता रहा।।
//संध्या सूफ़ी//
पता– डॉ संध्या सिन्हा
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JHARKHAND