Tag: #सुकमोती चौहान ‘रूचि’

यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर० सुकमोती चौहान ‘रूचि’ के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • गुरुवर – सुकमोती चौहान रुचि

    महर्षि वेद व्यासजी का जन्म आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को ही हुआ था, इसलिए भारत के सब लोग इस पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाते हैं। जैसे ज्ञान सागर के रचयिता व्यास जी जैसे विद्वान् और ज्ञानी कहाँ मिलते हैं। व्यास जी ने उस युग में इन पवित्र वेदों की रचना की जब शिक्षा के नाम पर देश शून्य ही था। गुरु के रूप में उन्होंने संसार को जो ज्ञान दिया वह दिव्य है। उन्होंने ही वेदों का ‘ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद’ के रूप में विधिवत् वर्गीकरण किया। ये वेद हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    गुरुवर

    गुरु है आदरणीय , दूर करता अंधेरा ।
    पाकर ज्ञान प्रकाश , सफल है जीवन मेरा ।।
    सद् गुरु खेवनहार , कीजिए सदैव आदर ।
    कच्ची मिट्टी खण्ड , बनाया जिसने गागर ।।
    गुरु के चरणों में अमृत , महिमा अपरंपार है ।
    भवसागर उद्धार का , गुरु ही तो पतवार है ।।

    शिक्षक ईश्वर रूप, ज्ञान का होता दाता।
    नेक दिखाये मार्ग, जोड़िए इनसे नाता।।
    इनसे लेकर सीख, निरंतर आगे बढ़ना।
    पाकर ज्ञान प्रकाश, सदा ऊँचाई चढ़ना।।
    शिक्षक ही आधार है, इस समाज में ज्ञान का।
    निखारता चुन चुन सदा, सारे गुण इंसान का।।

    शिक्षार्थी हैं रिक्त , भरा गागर गुरु होता ।
    पाये जो सानिध्य , लगे भाग्योदय गोता ।।
    सब कुछ देता गुरू , पास जो उसके रहता ।
    फिर भी होत न रिक्त , पात्र उतना ही भरता ।।
    उदारता गुरु की महा , उसकी सीमा है नहीं ।
    रुचि करती है नित नमन , चाहे हों गुरुवर कहीं ।।

    सुकमोती चौहान रुचि

  • अहिल्या (खण्डकाव्य)- सुकमोती चौहान रुचि

    अहल्या अथवा अहिल्या सनातन धर्म की कथाओं में वर्णित एक स्त्री पात्र हैं, जो गौतम ऋषि की पत्नी थीं। कथाओं के अनुसार यह गौतम ऋषि की पत्नी और ब्रह्माजी की मानसपुत्री थी।

    अहिल्या (खण्डकाव्य)- सुकमोती चौहान रुचि

    अहिल्या (खण्डकाव्य)- सुकमोती चौहान रुचि

    सघन वनों के बीच , बना इक आश्रम अनुपम ।
    चहक रहे खगवृंद , क्षेत्र है पावन उत्तम ।
    सरयू बहती पास , हंस तैराकी करते ।
    अपनी भार्या संग , वहाँ ऋषि गौतम रहते ।
    जो हैं सागर ज्ञान की , बही न्याय गंगा वहाँ ।
    कोटि नमन भूखण्ड को , धर्म वेद पढ़ते जहाँ ।।1।।

    मलय पवन की गंध , सदा सुरभित करती है ।
    दुखी जनों के पीर , सदा पल में हरती है ।
    खिली लताएँ डाल , तितलियाँ झूमे नाचें ।
    भंवर गूँँजन नाद , कली कुंजन के ढाचें ।
    हरा भरा वातावरण , सरसाते सुख स्वर्ग ये ।
    गौतम पर्ण कुटीर से , निकली हुई निसर्ग ये ।।2।।

    गौतम जी के साथ , अहिल्या सुंदर नारी ।
    सुंदरता प्रतिमान , सती माता सुकुमारी ।
    पति पग को संसार , मानती जो थी हरदम ।
    हरपल आठों याम , चरण सेवी सी मरहम ।
    रूप रंग सौंंदर्य शुचि , गुणी अहिल्या मात थी ।
    हर गुण से सम्पन्न थी , इक अनुपम सौगात थी ।।3।।

    रूप रंग को देख , खोजता अवसर कामी ।
    कामातुर देवेन्द्र, काम का रोगी नामी ।
    देख अकेली नारि , भेष ऋषि का कर धारण ।
    मान किया वह भंग , पाप का बनकर कारण ।
    गौतम महर्षि तब वहाँ , आये आश्रम में तभी ।
    माता विस्मित थी बड़ी , कौन सत्य असली अभी ।।4।।


    क्रोधित हुए महर्षि , कोप से संयम टूटा ।
    दिये श्राप तत्काल , बूद्धि भी तत्क्षण छूटा ।
    रह बनकर पाषाण , आचरण है जड़ जैसा ।
    किया तुम्हीं ने पाप , अहिल्या तुमने वैसा ।
    तब से माता पाषाण बन , सहती दुःख अपार है ।
    भोग रही है श्राप को , फँसी वह मझधार है ।।5।।

    वन का यह भू भाग , लगा खोने हरियाली ।
    सूखे जीवन धार , लगे सब खाली – खाली ।
    एक भूल की आज , व्यथा भारी दिखती है ।
    ऐसा कारुण लेख , भाग्य खुद लिखती है ।
    बना खंडहर आज है , कुटिया जो थी भव्य कल ।
    जीर्ण शीर्ण अवशेष है , जो थी शाश्वत सुख महल ।।6।।


    मिथिला की वह भूमि , दिखी जो अतीव निर्जन ।
    लगता उजड़ा बाग , संपदा में जो निर्धन ।
    टूटी पर्ण कुटीर , वहाँ पसरा सन्नाटा ।
    बहे निराशा भाव , चुभा ज्यों कोई काँटा ।
    उस आश्रम के पास ही , बड़ी शिला के रूप में ।
    पड़ी अहिल्या मातु है , पीड़ा सहती धूप में ।।7।।


    करती किससे बात , पड़ी एकाकी जीती ।
    इस दुनिया का दंश , जहर जीवन का पीती ।
    सहनशील थी नारि , शिकायत कभी न करती ।
    असहनीय यह पीर , मौन होकर सब सहती ।
    करे नहीं आरोप वह , भाग्य लेख वह समझती ।
    जड़वत स्थिति में है पड़ी , पीड़ा पल – पल बरसती ।।8।।

    खुद ही खुद से बात , बावरी सी करती है ।
    करती खुद ही प्रश्न , खोज उत्तर भरती है ।
    दुखी अहिल्या मातु , नहीं इसके सम कोई ।
    पड़ी अकेली नार , भाग्य पर अपनी रोई ।
    अंदर ही कुढ़ती रही , बोझ लिए अपने हृदय ।
    क्षोभ निराशा ग्लानि के , मत में होता मन विलय ।।9।।

    खुद ही पक्ष विपक्ष , साक्ष्य पीड़ा की खुद ही ।
    दुख में रही कराह , किसी ने ली नहिँ सुध ही ।
    स्वामी अंतर्ध्यान , अकेला मुझको छोड़े ।
    जो थे जीवन ज्योति , वही मुझसे मुँह मोड़े ।
    आत्म तत्त्व मेरा पृथक , सह दे वार्तालाप में ।
    धैर्य बँधाता है सदा , मुझको करुण विलाप में ।।10।।

    समझे ये संसार , बनी मैं केवल पाहन ।
    रही नहीं मैं जीव , नहीं जीवन हो वाहन ।
    माने सब निर्जीव , परे सुख दुख से मुझको ।
    भूल गये सब लोग , शिला जो समझे मुझको ।
    जड़ समझो मुझको नहीं , जीवित है संवेदना ।
    मौन पड़ी सब भोगती , जागृत मेरी चेतना ।।11।।

    मौसम का बदलाव , झेलती हूँ मैं भी नित ।
    जगे भाव अनुभाव , हृदय में मेरे नियमित ।
    बारिश की बौछार , भिगोता जाता मुझको ।
    नहीं छावनी पास , कहूँ दुखड़ा मैं किसको ।
    मन ही मन कुढ़ती रही , देखो मेरी हीनता ।
    दुनिया स्वार्थी है बहुत , नहीं देखती दीनता ।।12।।

    बहती आँसू धार, लगी झरने दो धारा।
    घटे नहीं संताप, मिला कोई न सहारा।
    पक्षी अभ्यारण्य, विरानी में डूबा है।
    चींटी चले न एक, लगे दृश्य अजूबा है।
    जाना मैंने है अब सखी, बदला रीत रिवाज है।
    परित्याग का परिणाम भी, बड़ा भयंकर आज है।।13।।

    बिन साथी के जीव, जिए ये जीवन कैसे।
    बिन जल सारे पौध, सूखने लगते जैसे।
    सभी शिला ही मान, भूलते मेरी पीड़ा।
    जाती बन मैं पीस, संग ज्यों गेहूँ कीड़ा।
    अबला हूँ हाँ सत्य ही, हाँ हूँ बेचारी बड़ी।
    फिर भी हारी हूँ नहीं, हक पाने में हूँ अड़ी।।14।।


    विहग न मारे पंख, तुहिण भी पास न उगती।
    गई चींटियाँ भाग , नहीं दाना अब चुगती।
    रंगत खोये पुष्प, भ्रमर बिन जियरा तरसे।
    क्षय हो जीवन शक्ति, दुःख की बदली बरसे।
    सहभागी बन पुष्प ये,डूबे मेरे शोक में।
    वरना है मिलता कहाँ, अपनापन इहलोक में।।15।।

    पंचभूत सिद्धांत , जगत में अगर न होती।
    हवा गगन जल भूमि , आसरा सबका खोती ।
    नियम बद्ध ये तत्व , सृष्टि में साथ सकारे ।
    मैं हूँ जिंदा लाश , छोड़िए हाथ हमारे ।
    सद मुक्ति मार्ग पथ तो मिले , आओ मेरे राम तुम ।
    इंतजार अब होता नहीं , आओ मेरे धाम तुम ।।16।।

    सदियों से हूँ कैद , शिला की इस सीमा में ।
    तिल- तिल मरती रोज , समय गति की धीमा में।
    अंग अकड़ते नित्य , पड़ी इक मुद्रा में स्थिर।
    नित्य फूलती साँस , प्राण फिर भी मेरे चिर।
    खड़ा कौन ऐसा अचल , जीव सृष्टि में है अहो।
    मुझ सा है दुर्भाग्य में , बड़ा कौन जग में कहो।।17।।

    मर्यादा के बंध , स्त्रियों के लिए बने हैंं ।
    पुरुष हेतु है छूट , स्त्रियों के लिए तने हैं ।
    दुख की है ये बात , न मुझको इसमें पड़ना ।
    पति का ही आदेश , मुझे है पालन करना ।
    शिला रूप मैं यत्र ही , इंतजार है राम का ।
    वचन यही है नाथ का ,मान रखूँ पैगाम का ।।18।।


    जीवन के उद्देश्य , बिना मुश्किल है जीना।
    छोड़ दिया भरतार, निराशा पड़ता पीना।
    तम मय ये संसार, लगे सब कुछ ही नश्वर।
    प्राणनाथ के साथ, गया मेरा जीवन तर ।
    छोड़ गये असहाय सब, फिर देखा मुड़कर नहीं।
    ली सुधि न किसी ने कभी , जिक्र नहीं मेरा कहीं।।19।।


    चूड़ी मेरे हाथ , माँग भी है सिंदूरी ।
    सब सुहाग के चिन्ह , लगाने की मंजूरी ।
    रुठा भाग्य अब हाय , परित्यक्ता कहलाऊँ ।
    दूर गये प्राणेश , नहीं मैं दर्शन पाऊँ ।
    नैन निहारे एक टक , जिस रास्ते थे तुम चले ।
    पग रज आँखें चूमती , प्रियतम अब तो दिन ढले।।20।।

    नीली पीली लाल , खनक चूड़ी का सुनकर ।
    आँखें अपनी खोल , देखते थे तुम हँसकर ।
    फूलों का श्रृंगार , तुम्हारे मन को भाते ।
    सुखमय था दाम्पत्य , सुखद दिन साथ बिताते।
    आँधी आई इक प्रिये , उजड़ गया तब घोसला।
    क्षण भर में ही कर गया , मन मंदिर को खोखला।।21।।

    जब है नार कुरूप , जगत ये मारे ताने ।
    होती नहीं विवाह , कुलक्ष्णी उसको माने ।
    जब है सुंदर नार , दृष्टि गंदी मन लाये ।
    मान भंग का दंश , एक नारी ही पाये ।
    नहीं किसी में सुख मिले , जीने को मजबूर है ।
    हाय विधाता क्या कहूँ , किसका यहाँ कसूर है ।।22।।

    जब होती हैं बाँझ , कहे मुख दर्शन मत कर ।
    धात्री पर है भार , पेट इनका तू ही भर ।
    दीर हुई गर नार , उसी को माने दोषी ।
    छोड़ गई ससुराल , मान ली जाती रोषी ।
    सब में नारी का दोष ही , दिखता हर इंसान को ।
    होता वह नर निर्दोष है , भंग किया जो मान को।।23।।


    छी छी करते लोग , घृणा सबकी मैं सहती ।
    जीती हूँ अभिशप्त , नहीं कुछ भी मैं कहती ।
    कहो विधाता तात , दिये किस्मत हो कैसी ।
    जो रहती निर्दोष , सज़ा पाती वह ऐसी ।
    और सज़ा इतनी कठिन , सदियाँ जाती है गुजर ।
    पूरी दुनिया दोष दे ,जाय देखते ही मुकर ।।24।।

    हाय विधाता रीत , बनाई कैसी तुमने ।
    अग्नि परीक्षा नित्य , स्त्रियों को आतुर भुनने ।
    श्राप शीश पर धार , मैं बनी हूँ इक पत्थर ।
    अंधा हुआ समाज , पड़ी हारी मैं थककर ।
    लज्जित करती तंत्र है , जो नारी है भोगिता ।
    बेशर्मी पर्दा उठा , न्यायालय संयोगिता ।।25।।

    मुझसे गलती एक, हुई थी अनजाने में।
    हुआ नहीं है न्याय, सुनाई नहिँ थाने में ।
    मैं अबला अनजान, गलत मुझको ही समझे ।
    उँगली का ये वार, देख मुझमें ही उलझे।
    पुरुष प्रधान समाज ये , नारी को ही दोष दे ।
    करके तर्क वितर्क ये , नारी को ही रोष दे ।।26।।

    पति परेश्ववर रूप , पास आया जो मेरे ।
    समझी निज भरतार , हूबहू रूप उकेरे ।
    मैं पति सेवी नार , मना भी कैसे करती ।
    जीवन के आधार , बिना मैं कैसे रहती ।
    पर्दा उठा रहस्य से , आत्म ग्लानि से भरी ।
    मेरे मुख पढ़ते अगर , नहीं वचन कहते खरी ।।27।।

    दुख की यह है बात , मुझे प्रिय समझ न पाये ।
    करना था विश्वास , मगर कर आप न पाये ।
    सिद्ध जितेन्द्रिय आप , क्रोध को जीत न पाये ।
    यही पक्ष कमजोर , आप जो समझ न पाये ।
    शांत अगर रहते प्रिये , तभी समझते विवशता ।
    तभी नजर आती तुम्हें , मेरी क्या थी विषमता ।।28।।

    पति की इच्छा मात्र, सदा ही आज्ञा जाना।
    उनके सेवा कार्य, सदा सर्वोपरि माना ।
    फिर भी दोषीदार , जगत ये मुझको माने ।
    इक पल में सब खत्म , हुए अपने बेगाने ।
    डोरी ही विश्वास की , इतनी जब कमजोर है ।
    करे गर्व फिर भी पुरुष , धिक धिक कैसा चोर है ।।29।।

    देते अगर न श्राप , न इतनी होती निंदा ।
    नहीं घृणित मैं पात्र , नहीं मैं पाहन जिंदा ।
    नारी के श्रद्धेय , नाथ मेरे तुम होते ।
    सबसे आदरणीय , नमित मन भाव पिरोते ।
    होता संत स्वभाव ये, आभूषण होता क्षमा।
    क्रोध शमन करते अगर , मानसपट में हो जमा ।।30।।

    मेरी बस थी चाह , मुझे तुमसे जाने जन ।
    आप बने पहचान , चाहता था मेरा मन ।
    इस अवसर का लाभ , नहीं क्यों आप उठाये ।
    बनकर भगवन आम, कोप क्यों व्यर्थ दिखाये ।
    बहते रहते नैन हैं , दोषी न तुम्हें मानती ।
    मेरे प्रति जो सोचते, तुम्हें हितैषी जानती ।।31।।

    बैठे बैठे नित्य , सोचती बातें नाना ।
    कैदी का यह दुःख , महा भीषण है जाना ।
    खालीपन का और , दुःख खलता जाता है ।
    कुंठा हीनता भाव , क्रोध खुद पर आता है ।
    मन के भावों का सामना , नित करती रहती यहाँ ।
    कोई मेरा साथी नहीं , दुखड़ा बाँटू मैं जहाँ ।।32।।

    पावस ऋतु का मेह , मुझे नहला पाता है ।
    सालों का यह धूल , झड़ाकर ही जाता है ।
    धन्यवाद हे मेह , लाख करती हूँ तेरी ।
    भूख प्यास के दुःख , बुझाती जाती मेरी ।
    चातक सा जीवन हुआ , केवल तुम हो आसरा ।
    आते चलकर पास तुम , सीमित मेरा दायरा ।।33।।


    मेरी बाँयी आँख , सखी क्यों फड़के सहसा ।
    मिले शुभे संकेत , अचानक ये मन हरषा ।
    रे मन कह तो बात , हुआ इतना क्यों खुश तू ।
    तुझे मिला क्या रत्न , कि पाया है क्या सुख तू ।
    कहती माता निज नजर , शनैः उठाने जब लगी ।
    देखी दो कोमल चरण , नमन भाव मन में जगी ।।34

    मातु अहिल्या पास , खड़े दो कुंवर भ्राता ।
    परम दिव्य है रूप , देख सुख मन ये पाता ।
    कोटि सूर्य की तेज , लगे उनके मुख मंडल ।
    देह जनेऊ धार ,देत संदेशा मंगल ।
    ठाठ राजसी राम का , धनुष बाण है संग में ।
    सिद्ध पुरुष रघुवर लगे , कोटि कला है अंग में ।।35।।

    सूर्य वंश के सूर्य , पधारे उस कानन में ।
    लिए भाव संतोष , चमक अद्भुत आनन में ।
    पग धारे श्रीराम , पाँव रज पाहन वारे ।
    प्रगट भई इक नार , रूप रमणी अवतारे ।
    प्रभु ने देखा नैन निज , पाहन नारी रूप धर ।
    सम्मुख उनके है खड़ी , अपने दोनों जोड़ कर ।।36।।

    लगे पूछने राम , कौन हो हे देवी! तुम ।
    कहाँ तुम्हारा धाम , हुई क्या घर से तुम गुम।
    कहिए सब वृत्तांत , खोलिए अपनी वाणी।
    कहने का अधिकार , कहे निश्चय हर प्राणी।
    परिचय अपना दीजिए , सहायता क्या हम करें ।
    देवी कल्याणर्थ सब , शूल आपके हम वरें ।।37।।

    कौन कहाँ से आप , कहो आई हो देवी !
    बनकर तुम पाषाण , रही बन किसकी सेवी ।
    लगती बड़ी कुलीन , वेष भी सात्विक धारी ।
    तपस्विनी जस आप , हुई किस कारण नारी ।
    कौन गौत्र कुल जात है , कौन तुम्हारा तात है ।
    कहो तुम्हें जो ज्ञात है , सत्य कहो क्या बात है ।।38।।

    करके उन्हें प्रणाम , अहिल्या माता भोली ।
    सुनकर प्रभु की बात , मधुर वाणी से बोली ।
    सुनें व्यथा रघुनाथ , नमन मेरा स्वीकारें ।
    कर मेरा उद्धार ,आप ही मुझे उबारें ।
    भाग्योदय मेरा हुआ , मुझे आप दर्शन दिये ।
    मुझे पाप से मुक्त कर , सुगति मुझे भगवन दिये ।।39।।


    हे रघुवर श्रीराम , नारि मैं हूँ बेचारी ।
    जग के पालनहार , ब्रह्म की राजदुलारी ।
    हे प्रभु दीनानाथ , एक दुखिया मैं नारी ।
    गौतम ऋषि भरतार , प्रेम जिनका मैं हारी ।
    पति की दासी हूँ बड़ी , सुनो अहिल्या नाम है ।
    जंगल बीच कुटीर यह , मेरा पावन धाम है ।।40।।

    छलिया का छल एक , ग्रहण जीवन में आया ।
    उजड़ा सुखी गृहस्थ , दिलाया पाहन काया ।
    कहा न मुझसे जाय , आप खुद अंतर्यामी ।
    त्रिकाल दर्शी आप , दूर करते हो खामी ।
    पाकर पावन धूलि मैं , मुक्त हुई उस श्राप से ।
    अनजाने जो हो गया , महा घृणित उस पाप से ।।41।।

    इस जीवन से मुक्ति , दीजिए हे नारायण ।
    चाहूँ अब मैं मोक्ष , करें प्रभु दोष निवारण ।
    पतित पावनी भक्ति , कभी मानव मत भूलो ।
    अपनाकर आदर्श , मर्म को तुम भी छू लो ।
    हे प्रभुवर परमात्म में , मेरा देह विलीन हो ।
    चाहे पापी हो महा , चाहे कोई दीन हो ।।42।।

    राम कहे सुन बात , आप हो महान देवी ।
    याद करेंगे लोग , आप ऐसा पति सेवी ।
    सदा पाक हो आप , रखो मत शंका कोई ।
    जितनी गंगा नीर , पाक उतनी ही होई ।
    सभी आपका नाम भी , लेंगे अति सम्मान से ।
    आप सदा नमनीय हो , देवी निज कुर्बान से ।।43।।

    परमात्म में विलीन , अहिल्या माता होकर ।
    पाई कृपा अनन्य , भक्ति की बेली बो कर ।
    ऋषि मुनि करें न प्राप्त , वही पदवी पाई है।
    दिये स्वयं आशीष , जनार्दन श्री साईं है ।
    रुचि आत्मा वह दिव्य थी , जग करता है नमन ।
    कथा परम नमनीय है , करे जगत में ये अमन ।। 44।।

    उनको करूँ प्रणाम , पंचकन्या कहलाते ।
    उनमें से है एक , अहिल्या देवी माते ।
    जिनका नाम महान , लिए श्रद्धा से जाते ।
    पूजनीय नारित्व , पाक रखती सब नाते ।
    मिली मुझे है प्रेरणा , अनुपम पावन शास्त्र से ।
    धुल जाते सब पाप हैं , जिनके सुमिरन मात्र से ।।45।।

    मैं मूरख खल काय , महा अज्ञानी नासी ।
    रुचि मेरा है नाम , पंचकन्या की दासी ।
    करो नाथ उद्धार , तुच्छ मैं प्राणी पतिता ।
    शरण लीजिए नाथ , चरण रज दे दो शुचिता ।
    गंदी नाली की नीर हूँ , आप कहो तो मैं बही ।
    आप प्रेरणा सागर प्रभो , एक बूँद भी मैं नहीं ।।46।।

    अहिल्या (खण्डकाव्य)- सुकमोती चौहान रुचि
    सुकमोती चौहान

    सुकमोती चौहान “रूचि”

  • वन दुर्दशा पर हिंदी कविता

    वन दुर्दशा पर हिंदी कविता

    poem on trees
    poem on trees

    अब ना वो वन है
    ना वन की स्निग्ध छाया
    जहाँ बैठकर विक्रांत मन
    शांत हो जाता था
    जहाँ वन्य जीव करती थी अटखेलियाँ
    जहाँ हिरनों का झुण्ड भरती थी चौकड़ियाँ
    वन के नाम पर बचा है
    मिलों दूर खड़ा अकेला पेड़
    कुछ पेड़ों के कटे अवशेष
    या झाड़ियों का झुरमुट
    जो अपनी दशा पर है उदास
    बड़ी चिंतनीय बात है
    वनों की उजड़ती बिसात है
    वन को काट
    चढ़ रहे हैं
    विकास की सीढ़ी
    बड़ी बड़ी ईमारतों पर
    वन की तस्वीर टंगा ही
    देख पाएगी भावी पीढ़ी
    साल ,सागौन ,खैर हो गए हैं दुर्लभ
    शुद्ध प्राण वायु भी नहीं है सुलभ


    सुकमोती चौहान रुचि
    ग्रा/पो -बिछिया(सा),तह -बसना जि – महासमुन्द ,छ.ग.

  • एक पंथ के दो पथिक

    एक पंथ के दो पथिक

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    एक पंथ के दो पथिक सदा, आपस में टकरायेंगे |
    टेड़ी – मेड़ी राहें जुड़कर , उनको सदा मिलायेंगे |

    तन – मन पर जो ओढ़ रखा वह, चादर कितना मोटा है |
    अखिल विश्व ये आज सिमटकर, लगता कितना छोटा है ||
    उम्र काट देते हैं सारी, तू – तू मैं – मैं के धोखे में |
    राह दिखाता दीप मिलेगा, अब तो झाँक झरोखे में ||
    एक – दूसरे से मुख मोड़े, कब तक चलते जायेंगे |
    एक पंथ के दो पथिक सदा, आपस में टकरायेंगे ||

    लक्ष्य एक है राह अनेकों , कर थाम लो उजालों के |
    दो पक्ष मिलेंगे तुमको नित, पूछे गये सवालों के ||
    एक पक्ष दूरियाँ बढ़ाता, दूजा पहलू दोस्ताना |
    एक करे मायूस जमाना, एक करे मन मस्ताना |
    निर्भर करता ये खुद पर ही, किस पक्ष को निभायेंगे |
    एक पंथ के दो पथिक सदा, आपस में टकरायेंगे |

    भेदभाव की रंजिश पाले, शक्ति क्षीण मत होने दे |
    अभिव्यक्ति की शुचि धारा में , मन मलीनता धोने दे |
    तेज धार में जो डूबा फिर, डूबकर तैर आता है |
    पार लगाने गैरों को भी , स्वयं सेतु बन जाता है ||
    ऊँचे संस्कारों के पुतले, वे महान कहलायेंगे |
    एक पंथ के दो पथिक सदा…

  • सुकमोती चौहान “रुचि” की 10 रचनाएँ

    सुकमोती चौहान “रुचि” की 10 रचनाएँ

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    एक अंकुरित पौधा

    एक अंकुरित आम , पड़ा था सड़क किनारे ।
    आते जाते लोग , सभी थे उसे निहारे ।।
    खोज रहा अस्तित्व , उठा ले कोई सज्जन ।
    दे दे जड़ को भूमि , लगा दे लेकर उपवन ।।
    करता वह चीत्कार है , जीना चाहूँ मैं सुनो ।
    मुझे सहारा दो तनिक , कोई तो मुझको चुनो ।।

    सुनते नहीं पुकार , हुए क्या मानव बहरे ।
    हुई चेतना शून्य , भाव भी हुए न गहरे ।।
    बड़ी तेज है धूप , कई दिन से प्यासा हूँ ।
    बुद्धिमान इंसान , तुम्हारी ही श्वासा हूँ ।।
    मैं आशातित दृष्टि से ,ताक रहा हूँ हे मनुज ।
    जीवन दोगे तुम मुझे , या बन जाओगे दनुज ।।

    मेरे कोमल पर्ण , लगे हैं अब मुरझाने ।
    टूट रही है साँस , मरण जीवन वो जाने ।।
    पड़ने लगी दरार , सूखता जीवन रस है ।
    अब तो मिले दुलार , टूटता सारा नस है ।।
    जब तक अंतिम साँस है , तब तक मुझको आस है ।
    मानवता है जिंदा अभी , मन में यह विश्वास है ।।

    प्यारा पौधा एक , नर्सरी का हूँ जाया ।
    रखती मेरा ख्याल , ध्यान से हर पल आया ।।
    शीतल पानी डाल , धूप में मुझे सुलाती ।
    पौष्टिक खाना रोज , समय पर मुझे खिलाती ।।
    पला बढ़ा हूँ मैं वहाँ , निशदिन लाड़ दुलार से ।
    दुःख कभी जाना नहीं , दूर रहा संसार से ।।

    मुनगा, बेर, अनार , आँवला नीबू केला ।
    भरा पड़ा अंबार , पौध का रेला पेला ।।
    पौधा बन तैयार , तभी बिछड़ा माली से ।
    यात्रा के दौरान , गिरा मैं उस ट्राली से ।।
    जीने को संघर्ष मैं , पल – पल करता हूँ सदा ।
    मानवीयता ढूढ़ता , रोज झेलता आपदा ।।

    चमक उठी है नैन , किसी ने मुझको देखा ।
    शायद अब हो भोर , भाग्य का चमके लेखा ।।
    उठा लिया निज हाथ , मुझे गड्ढे में रोपा ।
    उसने फिर जलधार ,शीश पर मेरे थोपा ।।
    तत्क्षण तब मैं जी उठा , हे जीवन दाता नमन।
    देता हूँ मैं ये वचन , जग में लाऊँगा अमन ।।

    26 तालाब

    भरे लबालब ताल , तैरते बच्चे तट पर ।
    तट पर वट का पेड़ , पड़े लट छींटे पट पर ।।
    नीलम वर्ण सरोज , खिले सर में अति सुंदर ।
    क्रीड़ा करते हंस , मीन उछले जल अंदर ।।
    स्वर्णिम किरणें भोर , जल तरंग में झूमती ।
    जीवन रेखा गाँव की , ताल किनारे घूमती ।।

    पशु पक्षी के झुंड , नित्य पीते जल शीतल ।
    ताल किनारे पेड़ , लगाते बरगद पीपल ।।
    वट सावित्री  पर्व , नारियाँ पूजन करती ।
    शंख घंट की नाद , कर्ण प्रिय सबको लगती ।।
    कुछ गिलहरियाँ शाख पर , करती थी अटखेलियाँ ।
    पास बेर की शाख पर , चढ़ी हुई थीं बेलियाँ ।।

    बच्चे आकर ताल , सीखते हैं तैराकी ।
    नित प्रति रविवार , देखिए इसकी झाँकी ।।
    मछली रानी पास , उन्हें आकर ललचाती ।
    पल में जाती भाग , पकड़ में कभी न आती।।
    आश्रय जलचर जीव की , होती ये तालाब है ।
    मेंढक मछली सीपियाँ ,पनडूबी नायाब है ।।

    खिड़की

    खिड़की घर की शान , लगे बिन  गेह अधूरी ।
    आये हवा प्रकाश , खिड़कियाँ बहुत जरूरी ।।
    आकर खिड़की पास , झाँकते बाहर हम सब ।
    खाना हो जब वात , पास बैठे आकर तब ।।
    बारिश की बूँदें तको  , खिड़की में आकर अभी ।
    धर के प्याली चाय की , खड़े – खड़े पीते सभी ।।

    बस मोटर या कार , नहीं मिलता है खाली ।
    सभी चाहते नित्य , सीट हो खिड़की वाली ।।
    बहता नित्य समीर , बहलता सबका मन है ।
    बाहर झाँके लोग , खेत मंदिर या वन है ।।
    यात्रा बनता आसान है , खिड़की वाली सीट पर ।
    लोग टूट पड़ते वहाँ , जैसे मुर्गी कीट पर ।।

    लगा रहे हैं दौड़ , कई यात्री चढ़ने को ।
    पाने को अधिकार , सीट कब्जा करने को ।।
    कई बार दो लोग , झरोखे पर लड़ते ।
    कितना अधिक महत्व , यही वे साबित करते ।।
    कै होना भी मान ले ,  इस झगडे़ का इक वजह ।
    समझौते कुछ लोग कर , दे देते अपना जगह ।।

    इसी झरोखे पास , अनेकों प्रेम कहानी ।
    प्रेम मिलन का द्वार , मिले राजा को रानी ।।
    सुंदर लड़की देख ,  प्रेम के गाते गाने ।
    जब – जब होती बंद , तड़प जाते दीवाने ।।
    लहराती पर्दा मखमली , रास्ते की बाधा बने ।
    शाम ढले आती है सुंदरी , यहीं झरोखे सामने ।।

    गौरैया आ रोज , बैठती है खिड़की पर ।
    चीं- चीं – चीं – चीं बोल , फुदकती वह झिड़की पर ।।
    पास पेड़ अमरूद , घोंसला से वक ताके  ।
    धामन चढ़कर पेड़ , घोंसला अंदर झाँके ।।
    सुनते कई कहानियाँ , खिड़की से शुरुवात की ।
    बात इशारों की समझ , छुप – छुप कर हालात की ।।

    गेह अँधेरा कूप ,नहीं जब खिड़की कोई ।
    आये नहीं प्रकाश , शांति उस घर की खोई ।।
    वास्तु दोष इक जान , अशुभ माना जाता है ।
    मिले बुरे संकेत , घर न मन को भाता है ।।
    बनता मुश्किल से निलय , सोच समझ कर कीजिए ।
    खिड़की रोशन दान से , घर पवित्र  कर लीजिए ।।

    दर्पण

    यथार्थता का ज्ञान , सदा करवाता दर्पण ।
    खुद का साक्षात्कार , करे खुद को ही अर्पण ।
    खुद की हो पहचान , स्वयं से मिलवाता है ।
    देख न पाये नेत्र , वही सब  दिखलाता है ।
    दर्पण बिन खुद को कभी , मानव कैसे देखता ।
    खुद के ही पहचान को , कैसे भला सहेजता ।

    नारी का शृंगार , अधूरा बिन दर्पण के ।
    रहे अधूरा साज , गीत के बिन अर्पण के ।
    बिन काजल के नेत्र , लुभाते कैसे चितवन ।
    भौंहें टंकाकार , भेदता कैसे तन मन ।
    बिन दर्पण की नारियाँ , जीती कैसी जिंदगी ।
    उम्र छुपा पाती नहीं , पचपन सत्तर की लगी ।

    बिन दर्पण इक चीज , बहुत अच्छा होता तब।
    रूप रंग को छोड़ , गुणों का आदर  कर सब ।
    पाते तब ही देख , सखी मन की सुंदरता ।
    जो है सत्य यथार्थ , दर्श फिर उसका करता ।
    अंतर्मन से देखता , अंतर्मन से सोचता ।
    बाह्य  दिखावे से परे , सत्य गुणों को खोजता ।

    गणेश वंदना

    जय जय देव गणेश , विघ्न हर्ता वंदन ।
    लम्बोदर शुभ नाम , शक्ति शंकर नंदन  है ।।
    सर्व सगुण की मूर्ति , सिद्धियों के हो मालिक ।
    अतुल ज्ञान भंडार , सुमंगल अति चिर कालिक ।।
    सबका घमंड दूर कर , करे सत्व का खोज है ।
    इनके परम प्रताप से , मिले सदा ही ओज है  ।।

    माता आज्ञा धार्य , लड़े अपने पालक से ।
    सबके पालन हार , जगत पति संचालक से ।
    तेजस्वी था पुत्र , अपरिचित थे त्रिपुरारी ।
    माता की पहचान , चरण जाये बलिहारी ।
    वचन पूर्ण अपना किया , देखो देकर प्राण वह ।
    मातृ शक्ति का मान रख , पाया अद्भुत त्राण वह ।।

    मात पिता है तीर्थ , यही सबको समझाये ।
    परिक्रमा कर सात , अग्र पूजा वे पाये ।
    बुद्धिमान गणराज , बने सबके प्यारे थे ।
    अद्वितीय कर काज , बने सबके तारे थे ।।
    सृजनकला के विज्ञ श्री , बनो प्रेरणा स्रोत तुम ।
    रुचि भी आई है शरण , बनो लेखनी जोत तुम ।।

    सरस्वती माता

    ज्ञान दायिनी ज्योति , गिरी दुर्गा गायत्री ।
    सर्व व्यापिनी मातु , नमः हे माँ स्वर दात्री ।।
    मातु शारदा शुभ्र , विमल भावों की देवी ।
    सकल चराचर जीव , परम पद वंदन सेवी ।।
    जड़ चेतन में संगीत की , देती शक्ति सरस्वती ।
    स्वरागिनी माँ पद्मासना , ज्ञान दान दे भारती ।।

    वंदन बारंबार , करूँ मैं वीणापाणी ।
    दे दो माँ वरदान , मधुर हो मेरी वाणी ।।
    ज्ञान दायिनी मातु , ज्ञान का भर दो गागर ।
    मैं हूँ बूँद समान , आप करुणा की सागर ।।
    निस दिन मैं पूजन करूँ , करना उर में वास माँ ।
    माँगू कृपा प्रसाद मैं , देना नव उल्लास माँ ।।

    जीवन तुझ पर वार , बनूँ माता आराधक ।
    तपो भूमि संसार , काव्य की मैं हूँ साधक ।।
    सेवक की है चाह  , बनूँ तेरी पूजारन ।
    रचूँ नवल साहित्य , तुम्हारी बनकर चारन ।।
    धारदार हो लेखनी , मिले प्रेरणा आपकी ।
    दे पाऊँ उपहार मैं , काव्य कुंज की पालकी ।।

    श्रृंगार

    नौ रस नौ है भाव , पले मानव मन अंदर ।
    मधुर भाव श्रृंगार , समाये उर के कंदर ।।
    रति स्थायी भाव , भेद दो इसका जानो ।
    प्रेमी जब हो साथ , परम् संयोगी मानो ।।
    जल वियोग की आग में , प्रेमी जोड़े तड़पते ।
    रुचि वियोग श्रृंगार में , मिलने को वे तरसते ।।

    मंद-  मंद मुस्कान , गुलाबी होती गालें ।
    अल्हड़ सी मद मस्त , हुई हिरनी सी चालें ।।
    बिना नशा के झूम , रही बनकर बावरिया ।
    प्रेम डगर में साथ , चले गाते साँवरिया ।।
    मधुर मिलन की रात है ,रिमझिम सी बरसात है ।
    पुलकित कुसुमित गात है , मन में झंझावात है ।।

    मधुर मिलन की रात , याद कर रोती विरहन ।
    बही अश्रुवन धार , भीगता तकिया सिहरन।।
    आँखें सूजी लाल , कपकपाते अधरों पर ।
    लेती पिय का नाम , बसा साजन नजरों पर ।।
    बेदर्दी मौसम हुए , चिढ़ा रहे हैं अब मुझे ।
    प्रेम अगन दिल में जले , नहीं बुझाये ये बुझे ।।

    ताली

    ताली की आवाज , करे मन को उत्साही ।
    बातों की हो पुष्टि , चाह की बने गवाही ।।
    प्रभु की कीर्तन भक्ति , नहीं ताली बिन होता ।
    आवश्यक यह  काम , सफलता माल पिरोता ।।
    ताली कई प्रकार की , स्काउट में बच्चे बजा ।
    नियम कायदा सीखते , लेते सदैव वे मजा ।।

    करतल ध्वनि संकेत  , बने अच्छा उद्घोषक ।
    होते अनेक लाभ , स्वास्थ्य का होता पोषक ।।
    रक्त चाप हो ठीक , दर्द होते छूमंतर ।
    यह भी है व्यायाम , गुप्त इक मानो  मंतर ।।
    गूँज उठी अब तालियाँ , जयकारे के संग में ।
    कृष्ण कथा में झूमते ,  रँग राधे के रंग में ।।

    शादी का है जश्न ,  लोग गाते कव्वाली ।
    गाते सुमधुर गीत ,  ताल में दे सब ताली ।।
    जब ताली की बात , किन्नरों को मत भूलें।
    नित उत्सव में नाच , सभी मस्ती में झूलें ।।
    आमद का जरिया यही , ताली ही औजार है ।
    यह किन्नर की खासियत , बने सहज व्यवहार है ।।

    एकांत

    कभी रहें एकांत , और अपने उर झाँकें ।
    कसें कसौटी आज , स्वयं को उसमें आँकें ।।
    दर्पण सा एकांत , स्वच्छ छवि दिखलाएगा ।
    मिटते हैं मनभेद ,समस्या सुलझाएगा ।।
    लेखा जोखा को समझ ,काम करोगे नित्य तब ।
    आत्म चेतना से जगे , अंतस का आदित्य तब ।।

    संयम जीवन सार , इसे मानव मत खोना ।
    यही सफलता द्वार , नहीं उत्तेजित होना ।।
    मंगल दायक धीर , सदा देता है शुभ फल ।
    ढृढ़ चरित्र पहचान , समस्याओं  का है हल ।।
    जीवन रखना संयमित ,  नायक बन उद्दात रे ।
    अंतिम हो इतिहास में , बन मानव विख्यात रे ।।

    बनकर रहिए सेतु , बढ़ायें सबको आगे ।
    करें नित्य सहयोग , देख अपनापन जागे ।।
    टाँग खींचना पाप , काम ये कभी न करना ।
    रखना भाव उदार , बहे परहित ज्यों झरना ।।
    कुछ पल की है जिंदगी , कर ले परोपकार रे ।
    अब तो कर ले स्नेह का ,जग में तू व्यापार रे ।।

     वस्त्र

    पेशे के अनुरूप , वस्त्र होता निर्धारण ।
    परिचय वर्ग विशेष , जानते जिसके कारण ।।
    धर्म कर्म पहचान ,वस्त्र करवा देता है ।
    हिन्दू मुस्लिम सिक्ख , समझ सबको लेता है ।।
    संस्कृति के अनुरूप ही , पहने सब पोशाक को ।
    अपनाकर निज सभ्यता , ऊँचा रखते नाक को ।।

    बुने जुलाहा वस्त्र , लिए भावों की माला ।
    रंग- रंग के वस्त्र , लाल सादा अरु काला ।।
    बुने बड़ा आकार , कल्पना कर मोटे का ।
    सुंदर शिशु आकार , बुने कपड़े छोटे का ।।
    सबकी इच्छा पूरण करे , निशदिन सोच विचार कर ।
    विविध रूप में सबके लिए ,  अम्बर वह तैयार कर ।।

    चले यौवना आज , पहनकर छोटे कपड़े ।
    फिल्मी चलते चाल , कई होते हैं लफड़े ।।
    अंग प्रदर्शन रीत ,  कभी भी ठीक न होता ।
    ढककर रखिए देह , भावना पाक पिरोता ।।
    पट प्रतीक होता सदा , चारित्रिक निर्माण का ।
    वस्त्र बने पहचान रुचि , मन की शुचिता त्राण का ।।

    सुकमोती चौहान “रुचि”