यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर० सुरंजना पाण्डेय’ के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .
संवेदनशील भाव संवेदनाओं के स्वर परोपकार की निःस्वार्थ भावना गैरों की चिंता से जोड़कर स्वेच्छा से सामने वाले की पीड़ा से/मर्म से खुद को जोड़ने की कोशिश ही परोपकार है। बिना लोभ मोह अपने पराये के भेद किये बिना किसी का सहयोग/सहायता ही तो परोपकार है, हमारे द्वारा किया गया परोपकार ही तो हमारी खुशियों का बेजोड़ आधार है। परोपकार ही तो हमारी संस्कृति, सभ्यता और संस्कार है।
★ सुधीर श्रीवास्तव गोण्डा(उ.प्र.)
बस एक परोपकार करना – प्रवीण गौतम
शीत ऋतु किसी के लिए पर्यटन है बर्फ में घूमने की मस्ती है।
किसी को गलन वाली ठंड मानो ठंड चिढ़ा रही हो ।
टूटी छत खुला आसमान चौड़ा सा आंगन शीत लहर।
तुम घूमना बर्फ की चादर पर बस एक परोपकार करना ।
जहां खुली कुटिया हो सिकुड़ता मानव हो ।
स्टेशन पर किसी अजनवीको उसे बस एक कंबल उढा देना ।
पीछे मुड़कर न देखना दिल की पुकार सुनकर।
ईश्वर का फरिशता बन जाना । उसका भरोसा आस्था ईश्वर है।
प्रवीण गौतम
करो परोपकार सभी निस्वार्थ – रेखा
करो परोपकार सभी निस्वार्थ।
पेड़-पौधे करते है जैसे ऑक्सिजन देकर मानव पर उपकार।
सूरज करता है जैसे अपनी किरणों से रौशन ये संसार।
नदियां बहती है जैसे चारों दिशाओं में बुझाने को प्राणियों का प्यास।
सैनिक करते है जैसै देश कि रक्षा देकर अपने प्राण।
किसान फसलो को जैसे उपजा कर करता है लोगो का कल्याण।
करो सबकी सहायता भूलकर अपना स्वार्थ।
रेखा गाजियाबाद (उ.प्र.)
परोपकारी बने- सुरंजना पाण्डेय
गुजारनी है तो जिन्दगी हमें कुछ इस नव विचारों से तो , बनाना है हर पल को यादगार अपने तरीके से। हर पल को बनाना है बहुत शानदार रहना है यूं तो हमें नये सोच के सलीके से। कि लोग आपकी तो मिसाल दे होना है जीवन में सफल इतना कि सब आपकी कामयाबी की मिसाल दे। चुनने है सबसे खुबसुरत लम्हों को कैद करना है उनको दिल की तिजोरी में। सँजोने है हमें बेहिसाब से सपने बिताने है हँसी पल अपनो के संग में। यकीन मानिए उस दिन आप सच में भाग्यशाली इंसान कहलायेगे। जीवन में जब आप किसी के काम आयेगें करिए बेहिसाब मदद आप दूसरो की। तो हो सके तो आप परोपकारी बने पाइए बदले में हर मदद के आप दुआ ,प्यार और आर्शीवाद ढेरों सारा हर उस जरूरतमंदो से तो। फिर ना होगी कभी भी आपको किसी भी चीज की कमी आपको। आपका जीवन सच में तो सुन्दर बन जाएगा तब जा के सच्चे अर्थों में आप इंसान बनेगे। हो जायेगे आप अजीज सभी के लिए हो जाएगा आपका नाम अमिट सदा के लिए। तो आप सचमुच एक अमीर इन्सान कहलायेगे बनिए दिल से आप सदा ही तो अमीर धन से अमीर तो यहां सब ही होते है। जो अपने व्यवहार और कार्य से तो सबका दिल जीते वही सच्चे अर्थो में एक काबिल इन्सान और परोपकारी होता है। ✍️ सुरंजना पाण्डेय
परहित – डॉ शशिकला अवस्थी
जग को मानवता का पाठ पढ़ाना । खुद भी मानव धर्म निभाना। परहित कर ,सभ्य समाज बनाना। दुख दर्द में सबको गले लगाना। तन -मन- धन देकर, परहित में जुट जाना। इस धरती पर स्वर्ग है लाना। कोई रहे ना भूखा प्यासा मदद पहुंचाना । अन्न, वस्त्र, औषधि देकर ,दर्द बंटाना । दया ,परहित धर्म ,सदा निभाना । परोपकार करते, धरती के फरिश्ते बन जाना । मुस्कुराहट मन भर के लुटाना। सब की हंसी खुशी में तुम मुस्काना। प्रगति पथ पर सब को आगे बढ़ाना। विश्व बंधुत्व भाव ,जन-जन में जगाना। आदर्श विचारों की पावन गंगा बहाना। राष्ट्रहित में जीना और कुर्बान हो जाना । करोना महामारी में संवेदना जगाना। जरूरतमंदों की मदद में हाथ बढ़ाना। देशवासियों को भी परोपकार में लगाना। जग को मानवता का पाठ पढ़ाना। खुद भी मानव धर्म निभाना।
रचयिता डॉ शशिकला अवस्थी, इंदौर मध्य प्रदेश
परोपकार- ममता प्रीति श्रीवास्तव
लू के थपेड़ों से लड़ लड़ के, जिसने जिलाया था तुझे। हो शीत ताप या बरसात, सीने लगाया था तुझे।
खुद कष्ट सारे सहके, हर नाम कर दिया तुझे। देखा आज,,, मन अकिंचन दुखी हुवा, असहय पीड़ा से ग्रसित हुवा। स्निग्ध ममता से भरे चक्षु से, नित अश्रु धार बहे।
जो भाव दुःख विषाद है, बयां करूं शब्दों में वो मेरा हाल ना। अस्थि पंजर सी काया, थे वो पत्थर बीन रहे।
ट्रेन की पटरी किनारे, वो आसरा है ढूंढ रहे। जल की बूंद एक तो मिले, दो जून की रोटी मिले।
इस आस में एक पिता, बूढ़ी अस्थियों से खेल रहा। क्या यही गति है? सोचूं मैं बावरी सी, व्याकुलता से भरी सी।
स्नेह पूरित आगे बढ़ के, पैरों में मैं गिर पड़ीं। बूढ़ी काया में जान आई, बुझती आंखों में आस आई।
देखा अपलक सोचा फिर बोला तू मेरी वही लाडली जो रहती थी मेरी गली।
अश्रु की धारा उधर भी, अश्रु की धारा इधर भी। अविरल है चली।।
स्नेहपुरित साथ पा के, सोया हुवा विश्वास जागा। बूढ़ी काया चल पड़ी, अधरों पर मुस्कान छाया। तोड़ी तोड़ी मैने सगाई, निष्ठुर हृदय इंसान से। जो पिता का सगा ना हुवा, वो क्या देगा सम्मान मुझे।।
स्वरचित ममता प्रीति श्रीवास्तव (प्रधानाध्यापक) गोरखपुर, उत्तर -प्रदेश।
बलिदानों को क्यूँ कर रहे तिजारत यूं देश को क्यूँ बाट रहे हर रोज रहे हम यूं। अपनी देश की मिटटी को क्यों कर रहे यूं अपमानित क्यूँ अपनी ओछी हरकतों से।
उठा रहे क्यूँ अपनो पे यूं शमशीरे तुम क्यूँ तौल रहे अपनो को यूं रख के तराजू में। जाति पाति के बंधन में झूठे पाखण्डो में आदर्शो और वाह्य आडम्बरो में यूं।
सब व्यर्थ ही रह जाएगा तो यहां करते हो हाय तौब्बा हर रोज ही क्यों। अपनो का गला काटते हर रोज यूं सब खाली रह जाएगा तो यहां।
खाली हाथ ही आए थे तुम बंदे खाली हाथ ही यहां से जाओगे तुम। शर्म करो कुछ तो अपने पे थोड़ा जीवन में अच्छे कर्म कुछ करो तुम।
चार कंधो पे मुस्कान बिखरते जाओ तुम मरने का दुख हो सबको ऐसे दिल में बसो तुम। वरना पीढीयांँ भी कलंकित हो जाएगी तुम्हारी इन ओंछी गिरी हरकतो पे।
अपने संस्कारो और आदर्शो पे गर्व करो तुम यूं ना धूल धूसरित करो अपने मर्यादा को तुम। पैमानो पे तौल सभी को यूं तो रोज क्यों शर्मिन्दा कर रहे क्युं तुम तो देश को क्यों।
देश है अपना ये सबसे प्यारा सा तो भाईचारा और अपनापन बना रहने दे। मानवता को महामण्डित करो तुम यूं ना अपनी बेवजह की हरकतों से देश की मर्यादा का हर रोज। हम अपने हरकतों से यूं दहन ना करे जीवन मूल्यों को लेकर जीवन में आगे बढे हम। ✍️ सुरंजना पाण्डेय
चित्र आधारित कविता : गाँव या ग्रामीण परिवेश पर कविता , संपादक – आदरणीया कवयित्री रीता प्रधान जी , रायगढ़ , छत्तीसगढ़
गाँव या ग्रामीण परिवेश पर कविता
मन चल उस गाँव में – प्रियदर्शनी आचार्य
रवि रश्मियों का बाजिरथ, जहाँ उतरता गाँव में दूर क्षितिज के पार, प्रकृति की छाँव में । मन चल उस गाँव मेंं …..
शशि की चंद्रकिरणें करती, श्रृंगार देहाती साँझ का धरती की तरुणाई में ,लावण्य बरसता वसुधा का । लद जाती आम्र तरु की डाली , आती गेहूँ में जब बाली उड़ती भीनी गंध सरसों की, पहनकर पीली चुनरी। मन चल उस गाँव में …..
खेतों में दूर तक फैली रहती ,मखमली हरियाली , जहाँ देखो सज रही, सैम अरु मटर की फली । पोखर में उगती घास भूरी, झूमती रहती मछली देख रमणीक छटा को, कोकिल होती मतवाली। मन चल उस गाँव मे…..
जहाँ सजती चौपालों में, गुड़ -गुड़ हुक्के की गिल्ली डंडों में होती, भरमार चौके छक्कों की। इंटरनेट पब्जी नही ,होते साइकिल के पहिए कटी पतंग की डोर के पीछे ,भागते गॉंव के बच्चे । मन चल उस गाँव मे…….
जहाँ कुर्ता धोती स्वापी का, पहने जो लिबास सीधी- साधी वेशभूषा वाला, गाँव का किसान । कुओं और बावडियों से, जल लाती गोपिकायें रुपयौवन संपन्ना , प्रसन्नवदना वो बनिताएँ। मन चल उस गाँव में…….
जहां लाज का घूँघट कर, ऑंचल को होंठ से दबाती स्वर्ग की अप्सरा भी, देख उन्हें खूब लजाती। टर्र -टर्र की ध्वनि गूँजती ,तलैया और ताल में , जीवन का संगीत बजता, पक्षियों के कलरव में। मन चल उस गांव में …….
जहाँ कुल्लड दोना पत्तल की, फैलती खुशबू सौंधी , इसी बहाने चूमने को, मिलती देश की मिट्टी। बहा पसीना खेतों में, जो सबका पेट पालता , कर्ज में डूबा वह किसान, सबका अन्नदाता कहलाता , मन चल उस गॉंव में…….
जहाँ मिट्टी में ही खिलता बचपन, धरती पर जीवन पलता देख ऐसे गॉंव को, प्रकृति का अनुराग – अँचल हिलता। मन चल उस गॉंव में…..
प्रियदर्शनी आचार्य (मथुरा)
चले गाँव की ओर- सुरंजना पाण्डेय
गाँव के पोखर तालाब, बाग बगीचों की वो सुंदर शीतल मधुर बयार। पेड़ों पे जहाँ लटके है रहते झूले बच्चे अपनी, धुन में जहाँ वो झूमते हैं। पगडंडी बनाते हुए किसान जहाँ, सभी व्यस्त खेती के कामों में जहाँ। हरी भरी खेतों की क्यारी है, फसलों से लहलहाते हर खेत है। शुद्ध हवा शुद्ध है पानी जहाँ, मौज मनाते है हर दिन लोग जहाँ। हर गाँववासी हर रोज ही जहाँ, ना कोई चिंता ना ही कोई फिकर, शान्त सदा ही जीवन रहता जहाँ। ना कोई जीवन की आपाधापी या होड़ वहाँ, बेशक कम है सुख सुविधाए तो वहाँ। पर नहीं उन्हें कोई गम किसी बात का तो, सूखी रोटी और प्याज नून में मजा जहाँ है। उन्हें पकवानों का सारा स्वाद मिलता है, घड़े के ठंडे पानी में ही तो अमृत मिलता है। वो सुख कहाँ मिलता शहरों की भरी भीड़ में , और चकाचौंध कंकरीट के विशाल गुम्बजों में। शीतल सौम्य सुचि पवन जहाँ बहती है, बहती रहती स्वच्छ धारा जहाँ तो है। ऐसा प्यारा गॉंव तो हमारा है, भोले सीधे सच्चे जहाँ के लोग हैं। रौनक बसती जहाँ के चौपालो में रोज है, हरियाली छायी रहती हर गाँवों के कोनो में है। बरबस खींचते मेरा मन हर रोज तो है, चले एक बार क्यों ना गाँव की ओर है। छोड़ ये चकाचौंध भरी जिन्दगी को, गुजारे कुछ सुकून के भरे पल तो है। जीवन की हलचल को छोड़ हम, बिताए चंद खुबसुरत पल गॉंव में हम।
सुरंजना पाण्डेय
मेरा गाँव- प्यारेलाल साहू
छोटा सा प्यारा सा , बड़ा न्यारा मेरा गाँव। नीम पीपल बरगद की, जहाँ है शीतल छाँव।।
छोटे छोटे कच्चे घर मगर, बड़े हैं लोगों के दिल यहाँ। तीन तीन पीढ़ियों के लोग, रहते हैं मिलजुल यहाँ।।
घर के बीचोबीच है, बड़ा सा एक आँगन। बिछी हुई है चारपाई। लगा है दादा का आसन।।
गाय भैंस बकरी आदि, होता है पशुपालन। चूल्हा चौका रसोई आदि, सब कुछ है यह आँगन।।
घर की दीवारों पर ही, कंडे थोपे जाते हैं। बनती है जिससे रसोई, सब बड़े प्यार से खाते हैं।।
सुनहरी लगती सुबह, और सुहानी है शाम। खेतों में मिलजुलकर, करते हैं सब काम।।
गाँव के मजदूर किसान। श्रम की करते हैं पूजा। मेहनत ही ईमान धरम, और धरम न दूजा।।
बैलों के गले की घंटी से गूंजता है मधुर संगीत। आता है निभाना लोगों को, यहाँ प्रीत की रीत।।
शहर में पैसा है। पर गाँव में प्यार है। प्रकृति ने लुटाया यहाँ, सौंदर्य बेशुमार है।।
अभावों के बीच भी है, अपार खुशियाँ यहाँ। प्रेम प्यार की ‘प्यारे’ आबाद है दुनिया यहाँ।।
प्यारेलाल साहू मरौद छ.ग.
बहुत याद आये गाँव- ऊषा जैन उर्वशी
चलो चलें अब गाँव की ओर, सुखद सुहानी वहां की भोर। हवा जहाँ बहती है संदली, खींचे मन को वहाँ की डोर।
मेरे घर का छोटा सा आँगन, अपनेपन से भरा वो उपवन। पीपल के तरुवर की छय्या, रिश्ते नातों से वोभरा चमन।
उषा की लाली जब छाए, रतनारी नदिया कर जाए। बाजे जब पायल छम छम, पनिया भरने गोरीजो जाए।
खटिया बिछी है हर आँगन , सीधा-साधा हर एक जन मन। सुख-दुख साँझा अपना करते, दूर करें अपनी हर उलझन।।
गौ माता की जहाँ सेवा होती, हर आँगन में गाय विचरती। गोबर से शुद्ध उपले बनाते, दूध दही की नदिया बहती।
खेत खलियानो की शोभा न्यारी, प्यार की यहाँ लगती फुलवारी। पेड़ों के झुरमुट में जुगनू चमके, चँदा लाए भर चाँदनी की गगरी।
कोमल फूल से यहाँ के बच्चे , मन के होते जो बिल्कुल सच्चे । सम्मान सदा देते वो बड़ों को, बड़ों से सुनते शूरवीरों के चर्चे।
शुद्ध यहाँ का भोजन होता, रहन-सहन सीधा सा होता। सारा गाँव लगे परिवार सा, सुख दुख में साथ खड़ा होता।
याद आ रहा मुझको गाँव, मिल जाती फिर से वह ठाँव। मेरे गाँव की वो पगडंडियाँ, रखती थी जहाँ झूम के पाँव।
उन्मुक्त पवन सा मेरा गाँव, धूप में मिलती पेड़ों की छाँव। गिल्ली डँडा वहाँ का मैदान, प्यार के ऊपर लगे ना भाव।
ऊषा जैन उर्वशी
याद आता है मुझें मेरा गाँव- रिम्मी बेदी
कच्ची गलियाँ, पीपल की छाँव, याद आता है मुझें मेरा गाँव।
वो गाँव की भोर, बैलों के गले में बँधी, घंटियों का शोर।
खुले आँगन, आँगन में खटिया, सर सर बहती निर्मल नदियाँ।
साझे आँगन, साझे चुल्हे, दादु के पाँव पे चढ़ कर बच्चे झूला झूले।
धूप सेकता, रिश्तों का डेरा, तब होता ना था,तेरा मेरा।
ना आज की चिंता,ना कल की फिक्र, चाचु,ताऊ की बातों में जवानी के किस्सों का ज़िक्र।
कच्चे घरों में पक्के रिश्ते, तब घरों में लोग नहीं, रहते थे फ़रिश्ते।
कबूतरों की गुटर गूँ, कौवों का काँव-कॉंव, सच में बहुत याद है, मुझें मेरा गाँव।
रिम्मी बेदी,नज़र रायपुर छत्तीसगढ़
याद आया गाँव मुझको – अंशी कमल
याद आया गाँव मुझको, आँख फिर ये नम हुई। मन-अजिर बरसात देखो, आज बेमौसम हुई।।
थे न होटल भी कहीं पर, अरु न कोई मॉल थे। अरु नहीं आनन्द खातिर, भी सिनेमा हॉल थे।।
दूर अपनों से करें जो, यों न इंटरनेट थे। स्वस्थ थे सब मस्त थे सब, पर न मोटे पेट थे।।
वत्स हों या नर व नारी, हों युवा या वृद्ध जन। साथ खाते बात करते, थे सभी के शुद्ध मन।।
थे मनुज के सँग मवेशी, नित्य रहते शान से। झूम उठता गाँव सारा, प्रेम से लद गान से।।
थे सभी नित साथ रहते, रौनकें हर द्वार थी। हर अजिर में नित्य खुशियों, की अतुल भरमार थी।।
दुख सुखों को बाँटने सब, एक आँगन बैठते। दर्प में निज चूर होकर, थे न कोई ऐंठते।।
थे न टाइल भित्तियों पर, ऊपले सजते सदा। खाट सजती हर अजिर में, तरु हरित सजते सदा।।
उम्र लम्बी थी न चाहे, हर सदन दीवार की। थे मगर रिश्ते जुड़े दृढ़, डोर सच्चे प्यार की।
अंशी कमल श्रीनगर गढ़वाल, उत्तराखण्ड
गाँव और परिवार- हुमा अंसारी
संयुक्त परिवार का खूबसूरत चित्रण है यह ! जो अब मुख्तसर ही देखने को मिलता । गाँव से लोगों का पलायन हुआ , सभी ने शहर की ओर रुख किया । एक कुलबा बना कर रहते थे सभी, एक जमाना हुआ करता था ऐसा । पशुओं के बिना अधूरा सा लगता था जहाँ , थे वे भी जीवन का अमूल्य हिस्सा । परिवार के सदस्य जैसे हुआ करते थे सभी, रिश्तों और खाद्य पदार्थों में शुद्धता का मिश्रण था । मेहनत कश लोग हुआ करते थे, बड़ा ही सुखद जीवन था । ऐसा नज़ारा तो अब सिर्फ ख्वाब बन गया । एकल परिवार का अब रिवाज बन गया ।
हुमा अंसारी
बागों की अमराई मुझसे छीन न लेना- शफात अली खान
भटक रहा मन अब भी उन खेतों मेड़ों पर जामुन महुआ आम और इमली पेड़ों पर।।
गाँव का बूढ़ा पीपल मौन निहारे सब कुछ महक भरी पुरवाई मुझसे छीन न लेना।।
चिर प्यासे पनघट अब कहाँ बचे गाँवों में खनक चूड़ियों की ना पड़ती अब कानों में।।
भूल गयी रस्ता पगडंडी ख़ुद गाँवों की अलस भरी अँगड़ाई मुझसे छीन न लेना।।
रंग से भरी बाल्टी जो तन पर ढरका दे नेह से अपने जो अन्तर्मन को महका दे।।
चंचल नयनों से सुधबुध हर लेने वाली राधा की वो स्मृति मुझसे छीन न लेना।।
नहीं रहा वह गाँव बात यह मान रहा हूँ दुनिया बदल चुकी है मैं भी जान रहा हूँ।।
बरसों से बसकर यादों में नित्य बुलाती झूठ ही सही मिताई मुझसे छीन न लेना।।
कहाँ खो गये चटक रंग टेसू फूलों के कजरी ,चैता ,गीत मिेटे सावन झूलों के ।।
चरखी रहट ढेकली पुरवट कहाँ जा छुपे सपनों की शहनाई मुझसे छीन न लेना ।।
शफात अली खान
एक आशियाना ऐसा था- संस्कार अग्रवाल
गाँव के गलियारों से निकल कर, बाहर आ गया हूं मैं। वापस जाना है अब तो, वापस कैसे जाऊं मैं?
वो पीपल की शीतल छांव, दोस्तों का फसाना। याद आता है अब मुझको, वापस कैसे लाऊं मैं?
वो खेलकूद और चोरी, टोली बना के होली। उनकी खुशी में ख़ुश थे, दुख में सबका रोना।।
वो हरियाली और बरसाते, गर्मी सर्दी की बातें। सबके साथ रहते थे जो, अब वो बात कहां है।।
मिलते थे सबसे हम तो, दोस्तों की टोली सुहानी। गांव में रहते थे जब, अलग ही थी जिंदगानी।।
वो फसलों की एक रौनक, मिट्टी की खुशबू थी जो। चूल्हे की रोटी चावल, याद आते हैं मुझको।।
वो अपनापन अब नहीं है, जीवन में रंग नहीं है। गांव में रहते थे जब, तभी रहते थे खुश बहुत हम।।
संस्कार अग्रवाल
ऐसा मेरा गाँव था- शोभा सोनी
शहरों की चमक में आके हम धोखा खा गए । सबके बहकावे में आके हम शहर आ गए ।
पैसा कमाने की लालच में भरमा गए । सुकून की छाँव छोड़कर बेहद पछता गए ।
पीपल की अब वो बैठक याद आती है। कच्चे मकानों की वो प्रित याद आती है ।
याद आता है वो माँ का चूल्हें वाला रोटा । वो शुद्ध गाय का दूध वो असली घी रोटा ।
शहर के खाने में वो प्यार की मिठास कहाँ । धातुओं के बर्तनों में माटी वाली बात कहाँ।
कहाँ वो नन्हें बच्चों की किलकारियाँ । रात दिन वो शौर शराबा खेल कूद मस्तियाँ ।
शहरों में कहाँ वो फसलें लहराती है । सुन सान बस्तियाँ बस गाड़ियों की आवाज है ।
ऊँचे ऊँचे मकानों में रहते बन्द दरवाजे हैं । पड़ोसी – पड़ोसी कभी होती नहीं बात है ।
मन तन्हा रोता है कहाँ अपने पन का संवाद है । प्यार ही बरसता था वहाँ अपनत्व का भाव था ।
मैं जिन गलियों को छोड़ आया वहाँ जीवन आबाद था ।
सच कहूँ स्वर्ग से सुंदर प्यारा मेरा गाँव था ।
बहारों सा महकता खुशबू भरा मेरा गाँव था ।
हर मौसम निराला था जहाँ ऐसा मेरा गाँव था ।
शोभा सोनी बड़वानी म,प्र,
संयुक्त परिवार- पं.शिवम् शर्मा
टुकड़ों – टुकड़ों में बँट कर रह गया वो संसार, जिसे हम बुलाते थे परिवार…
वो दादा दादियों की कहानी वो चाचा के कंधों पर झूलती जवानी…
वो सब कुछ खत्म हो गया बदल गए सबके व्यवहार, ना जाने कौन खा गया ? वो बातें सारी, जिन्हें हम कहते थे संस्कार…
दुनिया की इस भीड़ में, ना जाने कहाँ छूट गया वो संयुक्त परिवार…
एक ही चूल्हे में पकती थी पूरे घर भर की रोटियाँ, एक ही आँगन में खनकती थी, दादी माँ चाची भाभी सभी की एक साथ चूड़ियाँ…
साँझ ढले बच्चे आ घेरते दादा जी की खटिया, और फिर शुरू हो जाती थी वो लंबी लंबी कहानियाँ…
कोई दबाता पैर तो कोई हाथ, कोई सिरहाने लगाता तकियाँ, बातों ही बातों में दे दी जाती थी सबको संस्कारों की मीठी मीठी गोलियाँ…
रीतियाँ कुरीतियाँ गीतों में ही समझ आ जाती थी, क्या होंगी भविष्य की नीतियाँ, बड़ो के साथ खाना खाते खाते बच्चो को बचपन मे ही पता चल जाती थी…
आज उलझनों में खाना नही खाया जाता, तब बड़ी बड़ी उलझन खाना खाते खाते ही मिट जाती थी…
घर की नींव सदैव छत को जकड़े रहती थी, अब तो बिना नींव के ही छत खम्बों पर टिकी रहती हैं…
जैसे घर की उलझन हर कमरे में बिखरी दिखती हैं, परिवार और परवरिश झूठी मुस्कान लिए आज सिर्फ तस्वीरों में , दीवारों पे लटकी दिखती हैं….
पं.शिवम् शर्मा…
गाँव का दृश्य- मीनाक्षी वर्मा
हरियाली से भरा हुआ है गाँव। जहां मिलती है वृक्षों की छाँव।।
कैसे भूलूँ उन गाँव की, सुंदर गलियों को।। जहाँ उपलों से सजाते , थे लोग दीवालों को।।
पशुओं की आवाज से , भोर होता है सबका। जहाँ बैलों की घंटी , मन मोह लेती थी सबका।।
जहाँ मीलों दूर , साइकिल के पहिए चलते थे।। जहाँ सरपंच पेड़ों के नीचे , मन की बातें करते थे।।
गिल्ली और डंडे के। हम भी तेंदुलकर कहलाते थे।। जीते जाने पर यारों के , कंधों पर टाँगे जाते थे।।
जहाँ देसी घी , चूल्हे का खाना। मन को बड़ा लुभाता था ।। जहां बच्चों का बचपन।। खेल मिट्टी में बड़ा होता था।।
जहाँ मेले के मधुर दृश्य दिखाई देते थे। बाप के कंधों पर अक्सर बच्चे होते थे।।
मीनाक्षी वर्मा इटावा उत्तर प्रदेश
मेरा गाँव- अविनाश यादव
मेरा गाँव है सबसे प्यारा
एक परिवार के जैसे है सारा।
एक दूसरे के दुख सुख में हम मिलजुल कर सभी बनते सहारा। हमारे गाँव में जानवर भी हमारे परिवार का हिस्सा है। हम में कोई भेदभाव नहीं हम सबका एक ही किस्सा है। हमारे कच्चे मकानों में मिलता हमको इतना सुकून। चेन कि नींद हम सोते जिनमें हमारे कानों में चले मधुर हवाओं की धुन। हमारे कच्चे मकान है चारों ओर दिन भर गूँजें जिनमें मस्ती का शोर। जो चाहे घर में हम घुस जाए यहाँ कोई नहीं आ सकता है चोर। रात दिन चले यहाँ शीत लहर जहाँ चाहे घूमो आठों पहर। हमको किसी का डर नहीं यहां कोई नहीं आ सकता कहर। जन्म से आखरी दम तक चैन से जीते हैं दिन भर मेहनत मस्ती करके खूब खाते पीते हैं। हमें कोई बीमारी का डर नहीं बस रहना चाहे जीवन भर यही। क्योंकि हमारे सर है बड़े बूढों के आशीर्वाद की छाँव। ऐसा है यह मेरा गाँव मेरा गाँव ये मेरा गाँव
अविनाश यादव
ग्रामीण जीवन- डॉ सुषमा तिवारी
ग्रामीण जीवन.. होता देखो पावन, रहता है भाईचारा चारों ओर हरदम।
नहीं कोई पराया सभी लगते अपने, भेदभाव से दूर ही सजाते हैं ये सपने।
गाँव में रहते हैं सभी मानव और पशु भी, होते हैं सभी सहयोगी एक दूसरे के उपयोगी।
नही कोई है दिखावा नहीं है सोफा – अटारी, चारपाई पर सोकर भी आसमान का आनंद लेते।
सभी बातें खुलकर हैं करते न मनमें दुराव छिपाव रखते, सुख-दुख के बनते हैं साथी सभी को अपना हैं मानते।
भारतीय सभ्यता व संस्कृति को बचाकर रखते ग्रामवासी, छोटे बड़ों का करते लिहाज़ नहीं करते ये सभी मनमानी।
वो गाँव की सुहानी हवाएँ, वो खेत के फसले लहराए, वहाँ चिड़ीये भी चहचहाए, वो गाँव हमें बहुत याद आऐ।
शाम को जुगनु चमचमाए, हर तरफ है फल महकाए, नानी-दादी कहानी सुनाए, भाई-बहन संग मौज मनाए।
मिलजुल कर सब गप्पे लड़ाऐ, हर कोई सबका साथ निभाए, शहरो में सब पराए बन जाए, गाँव में हर कोई प्रेम लुटाए।
उदय झा मुम्बई
मेरा गाँव- मीता लुनिवाल
शहरों से प्यारा मेरा गाँव, सबसे प्यारा मेरा गाँव। वो खेत खलियान लहराते, ठंडी हवा के झोंके , बारिश में मिट्टी की सौंधी खुशबू मन को भाति है । ताजा ताजा साग सब्जियाँ। वो आम ,अमरूद के पेड़ों , पर चढ़कर फल तोड़ना, वो गलियों में दौड़ लगाना, चौपाल पर बड़े बूड़ो की बैठक। वो सर्दी में अलाप जलाकर तपना, नदी तालाब में तैरना नहाना, वो गाँव के मेले झूले बायस्कोप, मिट्टी के खेल खिलौने , गाँव की तो बात निराली, हर घर अपना सा लगता। गाँव का खाना चूले पर बना खाना, सबसे प्यारा मेरा गाँव।
मीता लुनिवाल जयपुर, राजस्थान
हमारा गाँव – इशिका गुप्ता
हमारा गाँव सबसे न्यारा ,जग में सबसे प्यारा, खेत- खलिहान ,बाग-बगीचे, सबसे सुहाने मन को भावे।
गाँव की गलियाँ,धूल-मिट्टी, खेलते हम, सब लुका-छिपी।
खेतों में ज़ाते लाते हरी- हरी घासिया, चराते गाय भैंसिया।।
देती गईया हमको दूध- मिठाईया, बनता गईया के गोबर से ,ईंधन, जलता है हमरी चूल्हिया ।।
हमारा गाँव खेतों से हरा -भरा, हैं यहाँ तरह तरह के फूल, पेड़- पौधे ,चारों तरफ़ हरियाली।।
हमरा गाँव सबसे न्यारा जग में सबसे प्यारा, हम बच्चे मिलकर खेलते हैं , कबड्डी-कबड्डी। ।
हमारा गाँव मे होती सुबह में शांति, पक्षी-पक्षियों को होती सुबह चहचहाहट गली -गली ।।
हमारे गाँव में सब मिलजुल के रहते हैं, एक चबूतरे पे बैठकर सब आपसे में बातें करते हैं।
हमारा गाँव सबसे न्यारा जग में सबसे प्यारा, बाँगो में झूले, झूलते हैं, कच्ची, खट्टी-मीठी ,खूब आमियाँ खाते हैं। ।
नहीं होता यहाँ सर छुपाने का कोई डर, खेत- खलिहान में भी, पूआल के झोपड़ियाँ बना लेते हैं। ।
गाँव की मिट्टी में बसती है, अपनापन, मिट्टी की खुशबू खिंच लाती है, अपने गाँव, की ओर। ।
गाँव की पगडण्डी छू कर पैरों को चलते,गाते गीत झूम- झूम,बच्चे।।
हमारा गाँव सबसे न्यारा जग में सबसे प्यारा। ।
मेरे अल्फाज- इशिका गुप्ता
गाँव का आँगन- डॉ शीतल श्रीमाली
नव वर्ष की पहली सुबह नव वर्ष की पहली सुबह गाँव के आँगन में ,खिली खिली पहली सुबह । अंगड़ाई लेती, सर्दी में , गुनगुनाती ,गाँव के आँगन में इठलाती पहली सुबह । नव वर्ष की पहली सुबह बड़े बूढ़े अनुभव से गुणे बाँध पगड़ी साफा करें इजाफा , खाट बैठ बतियाते हैं । जवान चल पड़े खेत पर जो किसान कहलाते हैं । गाँव के आंगन में चूल्हा , सूलगाती पहली सुबह नव वर्ष की, पहली सुबह लगे काम पर सब अपने-अपने । खुली आँखों से देख रहे नए भारत के आत्मनिर्भर सपने उम्मीद लिए गाय खुँटे से बँधी गाय खुशी से रंभाती है दीवार चढ़े आशा के उपले , कई सूरज से दिख जाते हैं । देखकर तस्वीर गाँव की शहर में तबीयत सुधर जाती है । मुझे मेरे गाँव की याद बहुत आती है । नव वर्ष की पहली सुबह गाँव के आंगन में आंखें मलती आई सुबह , ना ज्यादा की चाहा है ना थोड़े का दुख। यही तो है , इस जीवन में जीवन जीने का सुख , खुद को मेहनत में डाले हैं । जब पसीना बहाया किसानों ने ,तब धरती ने धंन धान निकाले हैं |मेहनत में ही समाई धरती की धाती है । नव वर्ष की पहली सुबह गाँव के आंगन में आंखें मलती आई सुबह, नव वर्ष की पहली सुबह बच्चों , को नहीं चाहिए महंगे खिलौने । नींद अच्छी आती है चाहे हो फटे ,भी बिछोने माँ का आँचल पकड़े निकल पड़े। माँ आशा से बंधा देहाती कोई ,गीत गाती है कभी-कभी गीत की धुन गुनगुनाती है । नहीं रोकती काम करते हाथों को काम करती जाती है । गाँव के आँगन में खिलखिलाती आई सुबह , चिड़ियों सी चहकती आई सुबह। बहती नदिया सी लहराती सुबह। गाँव के आँगन में खिलखिलाती सुबह।
डॉ शीतल श्रीमाली उदयपुर राजस्थान
गाँव का नजारा- रेखा शर्मा
मेल मिलाप बाकी हैं। गाँव के गलियारों में । इकट्ठे बैठ धूप सेंकना। दुख सुख साझे करना। एक आँगन में ही । इंसान पशुओं का बैठना। वो सुबह शाम को । गाय का रंभाना सुनना । घर के दरवाजे पर । एक बुजुर्ग का बैठना । आते जाते को बुलाना। हाल-चाल बताते जाना । ऐसा अदभुत खूबसूरत नजारा। गाँव गलियारे में हैं। दीवारों पर उपलों का सजना। चारपाई पर सब का बैठना। ऐसा रोमांचक नज़ारों का । मिलना असंभव होता जा रहा हैं। गाँव से शहरों का पलायन। इंसान से इंसानियत का पलायन हैं। गाँव क्या छूटा। बहुत कुछ छूट गया। इकट्ठे बैठ बातें करना । एक दूसरे को समझना। गाँव जान हैं हमारी। जो गंवा रहे हैं हम। जो गाँव में मिला । वह कहीं और ना मिला । गाँव में सादगी, प्यार, भोलापन मिला। छलपान सें दूर अद्भुत नजारा मिला।।।
रेखा शर्मा चंडीगढ़
चलो चले आज गाँव – साबिया रब्बानी
चलो चले आज गाँव हम अपने, घुमेंगे हम आज गाव में अपने, नए उमंग नए चाह के संग, करेंगे अपना काम आज हम सब, (नाना, नानी, खाला, मामा सब से आज मिलेंगे हम सब) *2 चलो चले आज गाँव हम अपने, घुमेंगे हम आज गाँव में अपने, खिचेंगे पानी कुए से, नदिया में डुबकी लेंगे, जा कर हम सब बगिया में, फिर आखँ मिचौली खेलेंगे, छूट गया जो बचपन अपना, उसको आज फिर जीएंगे। चलो चले आज गाँव हम अपने, घुमेंगे आज गाँव में अपने, मवेशी को चरा देकर, तितली के संग फिर उड़ेंगे, थक जाएंगे अगर हम सब, वही खेतो में फिर बैठेंगे, छोड़ शहर के प्रदूषण को , आज शुध हवा हम सब लेंगे । चलो चले आज गाँव हम अपने, घुमेंगे आज गाँव में अपने, माटी के चुल्हा में खाना आज बना कर खाऐंगे, अपनो के संग कुछ पल बीती बाते कर लेंगे, खेलेंगे गिली डंडा, फिर कच्ची सड़को पर हम दौड़ेगे, जीएंगे आज उन जीवन को, जहाँ से जीवन बस्ती है, कच्ची घर में रहते है, पर दिल के पक्के होते है, गाँव मे जो मानव रहते है, वह सच्ची जीवन जीते है, दिखावे के दुनिया से वह कोसों दूर रहते है, चलो चले आज गाँव में अपने, घुमेंगे आज गाँव में अपने।।
साबिया रब्बानी वाराणसी, उत्तर प्रदेश
वो पुराने दिन- संजय कुमार
पुराने दिन बीते सुहाने दिन बीते। वो बरगद का पेड़ पुराना, बीता जहाँ अपना याराना। याद है पल-पल की सब बातें भूलूँ कैसे वो गुजरा जमाना।
जब घर होते थे मिट्टी के आँगन भी होती थी कच्ची। धूल भरी गलियाँ थी बेशक, आज के सड़कों से भी अच्छी। परिवार में अपनत्व का अहसास सुख,दुख में सब थे आसपास। संयुक्त परिवार की बातें खास बच्चे दादा,दादी के पास।
अब तो पलंग मिलेगी घर- घर, पहले चारपाई पर होती थी बसर। अब तो गाँव में भी बदलाव आया हो गए अब गाँव भी शहर। वो संझा चूल्हा लकड़ी,गोइठा का फूँक- फूँक के बनाते व्यंजन, हँसी ठिठोली भी होती थी ननद,भौजाई के बीच खूब मनोरंजन। गौमाता के लिए भोजन पहले निकाला जाता था, पशु,पक्षियों को पानी भी खूब पिलाया जाता था। अब तो शहर में ये सारी बातें हैं रीते, पुराने दिन बीते सुहाने दिन बीते।।
छोटा सा घर गाँव का है विहंगम दृश्य धूप सेंकते ठंड में घरवाले हैं बैठ कर मिल जुल सबके संग। ढोर जानवर हैं बंधे घर के बाहर आज खाएं चारा भूसा खली देते दूध घी और छाछ। हरियाली चहुंओर है रौनक है भरपूर पास पड़ोसी इनके सभी होते कभी न दूर। चिपके हैं दीवार पर कन्ड़े उपले गोबर के बिना गैस का ईंधन हैं कार्य करें ये ऊपर के। यहां अमीरी है नहीं पर दिल से सभी अमीर प्रेम और आनंद बिन होते सभी गरीब। ऐसी सुहानी सुबह तो कहां सुलभ है आज गाँव देहात में आज भी मनमर्जी का राज।