वर्षा-विरहातप

वर्षा-विरहातप

वर्षा-विरहातप

(१६ मात्रिक मुक्तक )

कहाँ छिपी तुम,वर्षा जाकर।
चली कहाँ हो दर्श दिखाकर।
तन तपता है सतत वियोगी,
देखें क्रोधित हुआ दिवाकर।

मेह विरह में सब दुखियारे,
पपिहा चातक मोर पियारे।
श्वेद अश्रु झरते नर तन से,
भीषण विरहातप के मारे।

दादुर कोकिल निरे हुए हैं,
कागों से मन डरे हुए हैं।
तन मन मेरे दोनो व्याकुल,
आशंकी घन भरे हुए है।

बालक सारे हुए विकल हैं।
वृक्ष लगाते, भाव प्रबल हैं।
दिनभर कैसे पंखा फेरूँ।
विरहातप के भाव सबल हैं।

धरती तपती गैया भूखी।
खेती-बाड़ी बगिया सूखी।
श्वेद- अश्रु दो साथी मेरे,
रीत-प्रीत की झाड़ी रूखी।

सर्व सजीव चाह काया को,
जीवन हित वर्षा-माया को।
मैं हर तन मन ठंडक चाहूँ,
याद करे सब ही छाँया को।
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बाबू लाल शर्मा, ‘बौहरा’ *विज्ञ*

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