विनोद सिल्ला की कविता “सरकारी योग दिवस” में योग दिवस के औपचारिक और सरकारी रूप को चित्रित किया गया है। कविता के माध्यम से कवि ने योग दिवस के आयोजन की प्रक्रिया, उसकी तैयारियों और इसके सामाजिक-राजनीतिक महत्व को व्यंग्यात्मक और भावनात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है।
विनोद सिल्ला की काव्य शैली सरल, प्रवाहमयी और व्यंग्यात्मक है। उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक घटनाओं को सरल और व्यंग्यात्मक भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, ताकि पाठक इसे आसानी से समझ सकें और इससे प्रेरणा ले सकें।
सरकारी योग दिवस/ विनोद सिल्ला
आज है योग दिवस
नहीं-नहीं
सरकारी योग दिवस
आज के आयोजन में
प्रशासन था
भीड़ जुटाने के लिए
शीर्षासन में
जो समस्त कर्मचारी
व अधिकारियों को लाया
लगभग अपहरण करके
सत्तासीन थे
सुखासन में
अनपढ़ या कम पढों की
खिदमत में थे
उच्चाधिकारी
अंधे ने
अपने-अपनों को
बांटी रेवडियाँ
यूँ मना योग दिवस.
vinod silla
-विनोद सिल्ला©
“सरकारी योग दिवस” कविता योग दिवस के सरकारी आयोजनों पर एक व्यंग्यात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। इसमें योग के वास्तविक महत्व को उजागर करते हुए सरकारी आयोजनों में होने वाले आडंबर और दिखावे पर कटाक्ष किया गया है। कवि ने संदेश दिया है कि योग को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाएं, केवल एक दिन के आयोजन तक सीमित न रखें। योग का सही लाभ नियमित और निरंतर अभ्यास से ही प्राप्त किया जा सकता है।