शरदपूर्णिमा पर कविता
ओढ़ के चादर कोहरे की
सूरज घर से निकला था
कर फैला कर थोड़ी धूप
देने की, दिन भर कोशिश करता रहा
सांझ ने जब दामन फैलाया
निराश होकर सूरज फिर लौट गया
कोशिश फिर चाँद-सितारों ने भी की थी
पर कोहरे की चादर वैसी ही बिछी रही
कोहरे की चादर ,पर ..बहुत गाड़ी थी
हवाओं ने भी तीखी शमशीर चलाई थी
चादर को लेकिन खरोंच तक ना आई थी
तुषारापात ने भी घात किया
बस छन छन मोती ही गिरा
भेद सका ना चादर कोई
*कोहरे की चादर* ज्यों की त्यों तनी रही ।