जब विपदा आ जाए सम्मुख
जिसका साथ निभातीं परियाँ, मनचाहा सुख पाता है
जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।
क्या है उचित और क्या अनुचित, बनी न इसकी परिभाषा
दुविधा में जो फँसा कभी भी, टूटी उसकी अभिलाषा
जिसका मन हो लगा गधी में, वह उसको अपनाता है
जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।
उधर खूब पैसा ही पैसा, और इधर है कंगाली
आज योग्यता भरती पानी, देखें इसकी बदहाली
तिकड़म से जो पनप गया वह, अपनी धाक जमाता है
जब विपदा जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।
व्यर्थ हुई साहित्य- साधना, चलती अब ठेकेदारी
अगर माफिया साथ लगा हो, पड़ता वह सब पर भारी
मानवता से उसका कोई, दिखता कहीं न नाता है
जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।
चाहे कोई अधिकारी हो, नेता हो या व्यापारी
चार दिनों की सुखद चाँदनी, फिर रातें हों अँधियारी
मिट्टी का पुतला है जो भी, मिट्टी में मिल जाता है
जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।
खुद अपनी औकात भूलकर, हुआ यहाँ जो अभिमानी
याद उसे आएगी नानी, करता है जो नादानी
जो विनम्र होता है वह ही, परम पिता को भाता है
जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।
धन -दौलत, पदवी के बल पर, समझा खुद को तूफानी
समय बदलता है जब करवट, होती है तब हैरानी
अंत समय तिकड़म का ताऊ, भी खुद मुँह की खाता है
जब विपदा आ जाए सम्मुख, कोई नहीं बचाता है।
रचनाकार-✍️ उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
‘कुमुद- निवास’
बरेली (उत्तर प्रदेश)