Author: कविता बहार

  • मेरे आँगन में आई नन्हीं चिड़िया

    मेरे आँगन में आई नन्हीं चिड़िया

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    मेरे आंगन में आई एक चिड़िया
    नन्हीं सी सावली सलोनी चिड़िया
    रंग बिरंगे पंखो वाली
    फुदक फुदक कर चीं चीं करती चिड़िया |
    भोर समय में मुझे जगाती
    मेरे आंगन में आई एक चिड़िया |

    बिजली के तारों पर इठ्लाती चिड़िया
    खम्बे पर घर बनाती चिड़िया
    धुप आंधी बारिश सब सहती चिड़िया
    मुझको उसपर तरस आया
    दीवार पर लकड़ी का बक्शा लटकाया।
    घास फूंस डालकर उसको ललचाया।
    मेरे आँगन में आई एक चिड़िया |

    हरे सूखे तिनके जोड़ के
    मिया बीबी ने घर को सजाया।
    फिर दो अंडे के साथ दो बच्चों ने जन्म लिया।
    बच्चो की किलकारी से आँगन महकाया
    मेरे आंगन में आई एक चिड़िया |

    मिया बीबी निकल पड़ते खाने की तलाश में
    अपने बच्चो का पेट भरने की लिए
    खूब मेहनत करते खाना खिलाते
    चोच से चोच मिलाकर प्यार जताते
    रात को अपने पंखो की गर्मी में सुलाते
    मेरे आंगन में आई एक चिड़िया |

    समय का चक्र चला कुछ ऐसा
    बच्चों के पंख निकल अब बड़े हुए
    साथ साथ अब उड़ने की तयारी में लगे
    खुले आकाश में जीने के लिए
    अपनी जिंदगी को आगे बढ़ाने की लिए |
    मेरे आंगन में आई एक चिड़िया |

    एक दिन चिडया उडी खाने की खोज में
    सुबह निकल पड़ी अपने राहो पर
    लौटे तो शाम हो गयी
    देखा घर में था सन्नाटा।
    उड़ गये जिनको पाला था जतन से
    खाली सुनसान पड़ा घर देख वो घबराये
    ची ची कर वो फडफ्डाये मुस्कराए
    फिर उड़ान भरी खुले आकाश में
    एक नये जीवन की तलाश में।
    एक नये जीवन की ..
    मेरे आंगन में आई एक चिड़िया |

  • अपने लिये जीना (अदम्य चाह)-शैली

    अपने लिये जीना (अदम्य चाह)-शैली

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    मैं चाहती हूं,
    अपने लिये जीना
    सिर्फ़ अपने लिये।

    जवाबदेह होना
    न हो कोई बंधन
    बस मैं और मेरा स्वतंत्र जीवन।

    कोई रोकने-टोकने वाला न हो
    कोई कटघरे में खड़ा करने वाला न हो
    कोई ये न पूछे कहाँ थी?
    क्यों थी?
    क्या कर रही थी?
    मैं सिर्फ मेरे लिए जवाब दूँ।

    मैं चाहूं तो गुनाह कुबूल करूँ

    या अपना बचाव करूँ
    न हों प्रश्न , न उत्तर देना हो
    बस स्वच्छंद मन और स्वच्छ आकाश हो
    जहाँ मैं अपने पंख ख़ुद तौलूँ,
    अपनी क्षमतायें या कमियाँ टटोलूँ
    ऊँचे या नीचे उड़ूँ,
    वहाँ तक पहुँचूँ।

    जहाँ तक औकात हो
    पर उसके लिए
    मन में कोई परिताप न हो।
    ऊँचाईयाँ छूने की कोशिश में
    अगर गिरूँ तो अपनी हिम्मत से उठ सकूँ।
    थकूँ या चोट खाऊँ तो ख़ुद को दोष दूँ।
    उपलब्धियों पर पीठ थपथपाऊं।
    असफलता पर शर्म से गड़ जाऊँ।
    चोट लगे तो अपने आँसू पी जाऊँ।
    घाव लगे तो उन्हें सी पाऊँ।

    रोने के लिए, किसी कंधे की तलाश न हो
    किसी के साथ की, मन को कोई आस न हो
    कोई ‘और’, ज़िम्मेदार न हो
    कोई आरोप या सवाल न हो।

    मैं जीतूँ या हार जाऊँ
    आगे बढ़ूँ या रुक जाऊँ
    अच्छा या बुरा, दुःखी या सुखी
    जैसा भी जीवन हो
    जी तो सकूँ,
    या,
    चैन से मर सकूँ
    मृत्य पर मैं, श्मशान ख़ुद जाऊँ।
    स्वयं की कीर्ति या लाश भी ख़ुद उठाऊं।

    नाम – शैली
    पता – 5/496 विराम खण्ड, गोमती नगर, लखनऊ, उत्तर प्रदेश, 226010,
    चल-भाष-9140076535

  • प्रकृति बड़ी महान/यदि मैं प्रकृति होती

    प्रकृति बड़ी महान/यदि मैं प्रकृति होती

    प्रकृति बड़ी महान

    Global-Warming-
    Global-Warming-

    प्रकृति देती जाती है।
    हमें बहुत कुछ सीखाती है।
    अपने स्वार्थ के लिए मत करना,
    प्रकृति का अपमान।
    प्रकृति बड़ी महान।

    एक पल सोचो जरा , जो वृक्ष न रहेंगे।
    जीवन देते ये हमको, फिर हम क्या करेंगे।
    वृक्ष लगाकर पृथ्वी को हरा भरा बनाओ,
    ये हरियाली ही तो है प्रकृति की शान।
    प्रकृति बड़ी महान।

    सूरज चांद सितारे ये इसके अनमोल खजाने हैं।
    पर्वत तुमको साहस देता नदियां सुनाती तराने हैं।
    प्रकृति का सौन्दर्य अनोखा, मन को भाए,
    देखो जरा न हो इसको कोई नुक़सान
    प्रकृति बड़ी महान।

    प्रकृति में ही ईश्वर है, जिसने हमें तराशा है।
    प्रकृति ने हमें सिखाया, जीने का सलीका है।
    प्रकृति मां हमारी, इसने हमको पाला है,
    हम सब हैं, इस प्रकृति की संतान।
    प्रकृति बड़ी महान।

    यदि मैं प्रकृति होती

    बनके हवा गगन में लहराती,
    कभी ओढ़ के हरियाली ,
    बागों बागों फिरती जाती।
    यदि मैं प्रकृति होती।

    सूरज चांद सितारे मेरे अनमोल खजाने होते।
    झरनों की झन झन में मेरे ही तराने होते।
    बन कर सरिता सबकी प्यास बुझाती जाती।

    जैसे ये पर्वत, कभी न झुकती, डटी रहती।
    बनके छाया वृक्षों की पथिक की राह निहारती।
    उमड़ घुमड़ कर आती बारिश सी झमझमाती।

    धरती पर धूल की तरह इठला कर उड़ती।
    सबको सब कुछ देती कभी निराश न करती।
    प्रकृति के हर कण में जीवन है ये सबको सिखाती।

    तितली, भंवरों की तरह फूलों पर मंडराती।
    कलियां बनकर गोरी के बालों में सज जाती।
    मिट्टी की सौंधी खुशबू बनकर जग को महकाती।
    आसमां पर काली घटा जैसे, चारों ओर छा जाती।

    सुशी सक्सेना इंदौर

    फ्लैट नंबर – 501- A
    आल्ट्स रेजीडेंसी, प्लाट नंबर – 361,
    सेक्टर – N, सिलिकॉन सिटी, इंदौर
    मध्य प्रदेश
    पिन नंबर – 452012

  • नन्हे प्रधानमंत्री

    नन्हे प्रधानमंत्री

    kavita

    भूमण्डल पर चमका ऐसा लाल,
    जिसने देश को किया निहाल,
    ननिहाल में पला-बढा यह लाल,
    ‘नन्हे’ बन गए बड़े विशाल।
    कद में छोटे, उच्च विचार,
    शाला जाता नदिया पार।
    नन्हे ने किया ऐसा कमाल,
    असहयोग आन्दोलन की ले ली मशाल।
    गांधीजी का मिला मार्गदर्शन,
    ढूँढ लिया जीवन का दर्शन।
    ‘शास्त्री’ की उपाधि से स्वयं विभूषित,
    गृह मंत्री,रेल मंत्री व प्रधानमंत्री के पद को किया विभूषित।
    लाल किले की प्राचीर से दिया ऐसा नारा,
    ‘जय जवान,जय किसान’ से गूंजा भू और अंबर सारा।
    अठारह साल का कार्यकाल सीमित,
    फिर भी कार्य कर गए असीमित।
    जिस दिन विदा हुआ यह लाल,
    भारत का कोना कोना हुआ निढाल।
    ऐसा है यह चरित्र दैदीप्यमान,
    विश्व में अमिट है इनकी शान।

    माला पहल, मुंबई

  • नवरात्र शक्ति आराधना

    आश्विन नवरात्र की शुभकामनाओं के साथ माँ शक्ति को प्रसन्न करने हेतु स्वरचित आराधना

    माँ जगदम्बे
    मां दुर्गा

    नवरात्र-शक्ति-आराधना

    (सर्व अमंगल , मंगलकारी ,
    दुःख-पीड़ा से तारण हारी ।
    जग-तम में तू ही उजियारी ,
    जीव कंटको में फुलवारी ।
    अब तो आजा , हे जग माँ तू ,
    यह दुनियां तुझ ही को पुकारी ।)…..2

    स्मरण तेरा शुरू करें हम ,
    घट को स्थापित करके।
    घट-घट में है तू ही बसती ,
    शक्ति जागृत करके ।
    अखण्ड जोत तेरी नव दिन बालूं ,
    मन से ज्ञापित करके ।
    धूप ,अगर और करूँ क्या अर्पण ,
    तू ही मुझे समझा री ।
    सर्व अमंगल , मंगलकारी ,
    दुःख पीड़ा से तारण हारी ।
    जग-तम में तू ही उजियारी ,
    जीव कंटको में फुलवारी ।
    अब तो आजा ,हे जग माँ तू ,
    यह दुनियां तुझ ही को पुकारी ।

    भक्ति ये मन की पाट धरूँ माँ ,
    चौक को पूरित करके ।
    अन्न अंकुरित करना भी है ,
    माट में मिट्टी भरके ।
    झांकी तेरी लगती है निश्छल ,
    देख-देख मन हरखे ।
    मन के अब सब , द्वार में खोलूं ,
    आ इसमें बस जा री ।
    सर्व अमंगल , मंगलकारी ,
    दुःख पीड़ा से तारण हारी ।
    जग-तम में तू ही उजियारी ,
    जीव कंटको में फुलवारी ।
    अब तो आजा ,हे जग माँ तू ,
    यह दुनियां तुझ ही को पुकारी ।

    चैत्र-आश्विन ,शुक्ल प्रतिपदा ,
    पूजन शुरू करें हम ।
    अगर जला कर ज्योति जलाएं ,
    अभी मिटे यह जग-तम ।
    थाल सजा कर करें आरती ,
    नाचे गाएँ सब हम ।
    तेरा साथ रहे अब निश दिन ,
    आशीष तू अपना लूटा री ।
    सर्व अमंगल , मंगलकारी ,
    दुःख पीड़ा से तारण हारी ।
    जग-तम में तू ही उजियारी ,
    जीव कंटको में फुलवारी ।
    अब तो आजा ,हे जग माँ तू ,
    यह दुनियां तुझ ही को पुकारी ।

    नव दिन तक नव रूप हैं तेरे ,
    एक-एक करूँ पूजन ।
    पूजूँ-गाऊँ तुझे सुनाऊँ,
    नव दिन तक और क्षण-क्षण ।
    महिमा तेरी सब जग जाने ,
    क्या री करूँ अब वर्णन ।
    इस जग को सब तू बतलाती ,
    अब क्या-क्या लिखूं बतला री ।
    सर्व अमंगल , मंगलकारी ,
    दुःख पीड़ा से तारण हारी ।
    जग-तम में तू ही उजियारी ,
    जीव-कंटको में फुलवारी ।
    अब तो आजा, हे जग माँ तू ,
    यह दुनियां तुझ ही को पुकारी ।

    नव दिन जग करे शक्ति पासना ,
    विध-विध रूप की तेरे ।
    हो ब्रह्मी या गृहस्थ भले हो ,
    सन्यासी बहुतेरे ।
    शक्ति सभी को तू वर देती ,
    मनुज हो दनुज भलेरे ।
    कन्या रूप को करके पूजित ,
    जग सिद्धि प्राप्त करे री ।
    (सर्व अमंगल , मंगलकारी ,
    दुःख पीड़ा से तारण हारी ।
    जग-तम में तू ही उजियारी ,
    जीव कंटको में फुलवारी ।
    अब तो आजा ,हे जग माँ तू ,
    यह दुनियां तुझ ही को पुकारी ।)…2

    ✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी/राज.)*