Author: कविता बहार

  • आता देख बसंत

    आता देख बसंत
    आता देख बसंत, कोंपलें तरु पर छाए।
    दिनकर होकर तेज,शीत अब दूर भगाए।।
    ग्रीष्म शीत का मेल,सभी के मन को भाए।
    कलियाँ खिलती देख, भ्रमर भी गीत सुनाए।
    मौसम हुआ सुहावना,स्वागत है ऋतुराज जी।
    हर्षित कानन बाग हैं,आओ ले सब साज जी।।

    यमुना तट ब्रजराज, पधारो मोहन प्यारे।
    सुंदर सुखद बसंत ,सजे नभ चाँद सितारे।।
    छेड़ मुरलिया तान, पुकारो अब श्रीराधे।
    महाभाव में लीन, हुई हैं प्रेम अगाधे।।
    देखो गोपीनाथजी, आकुल तन मन प्राण हैं।
    रास करें आरंभ शुभ,दृश्य हुआ निर्माण है।।

    धरा करे श्रृंगार,पुष्प मकरंद सँवारे।
    कर मघुकर गुंजार,मधुर सुर साज सुधारे।।
    बिखरा सुमन सुगंध, पलासी संत सजारे।
    आया नवल बसंत,मिलन हरि कंत पधारे।।
    आनंदित ब्रजचंद हैं,सुध बिसरी ब्रजगोपिका।
    ब्रज में ब्रम्हानंद है,श्रीराधे आल्हादिका।।

    -गीता उपाध्याय'मंजरी' रायगढ़ छत्तीसगढ़

  • माघ कृष्ण पक्ष षटतिला एकादशी

    माघ कृष्ण पक्ष षटतिला एकादशी

    उत्तम तिथि एकादशी,
    है शुभ परम पुनीत।
    वैष्णव जन करते सदा,
    व्रत बन सदा विनीत ।।
    माघ माह में पर्व सा,
    एकादशी महान।
    देती है शुभ फल सदा,
    करिये तिल का दान।।
    षट् तिल की एकादशी,
    होती है हर माघ।
    व्रत से आती शक्ति है,
    कर्म फलों को लाँघ ।।
    तिल को जल मे डालकर,
    होवे शुद्ध स्नान ।
    मृदु होती सूखी त्वचा,
    ऐसा यहाँ विधान।।
    तिल के उबटन से मिटे,
    कुछ-कुछ त्वचा निशान ।
    तिल मिश्रित पानी पिये,
    पाचन हो बलवान।।
    तिल मिश्रित भोजन सदा,
    ऊर्जा से भरपूर।
    गरमी लाता वदन मे,
    शर्दी करता दूर।।
    षट् तिल की एकादशी,
    मे होते जो होम।
    तिल आहुति से महकते,
    देखें धरती-व्योम।।
    सूर्य मकर मे पहुँचकर,
    देते अद्भुत शक्ति।
    भक्त करें आराधना,

    जिसकी जैसी भक्ति।।

    एन्०पी०विश्वकर्मा, रायपुर


  • शब्द तुम मीत बनो

    शब्द तुम मीत बनो

    शब्द मेरे मन मीत बनो ,
    जीवन का संगीत बनो,
    हर मुश्किल हालातों में ,
    मेरी अपनी जीत बनो।

    नित्य तुम्हारी साधना,
    करती रहूँ आराधना।
    कर देना मनमुदित मुझे ,
    व्यवहारिक नवनीत बनो।

    सदा सहयोग तुम्हारा ,
    हृदय प्रफुल्लित हमारा।
    अभिव्यक्ति अनमोल बने,
    प्रणय के मेरे गीत बनो।

    सहज धारा भावों की हो,
    फिर लेखन में समृद्धि हो।
    दुनिया भर का सुख तुमसे,
    मेरे सुर – संगीत बनो।

    संकोच नहीं तुमसे कभी,
    तुम मन के उद्गार सभी।
    मुखरित रहो सदा मुख से ,
    मन की प्यारी प्रीत बनो।

    तुम मेरी परिचय-रेखा ,
    बाकी कर्म है अनदेखा।
    जीवन भर साथ हमारा ,
    तुम सुखमय अतीत बनो।

    शब्द शब्द तुम कली बनो,
    और निखरकर सुमन बनो।
    माँ सरस्वती की हो कृपा ,
    तुम कविता की रीत बनो।

    मधुसिंघी
    नागपुर(महाराष्ट्र)

  • नारी नारायणी

    नारी नारायणी

    स्त्री बहुत मजबूर खड़ी है ।
    अपनों से पास या दूर खड़ी।।

    अपने और अपनों के चलते।
    हर रिश्ते की आग में जली।।

    कभी द्रौपदी बन लूटी।।

    अभी अहिल्या सी बुत बनी।

    बदलते रिश्तो की खातिर स्त्री।

    जल बिन मछली सी तड़पी भी।

    कभी राधा सी बिरहन बनी।।

    कभी मीरा सी जोगन बनी।।
    रिश्तो के बदलाव में स्त्री।

    आजीवन कसौटी पर तुली।

    कभी न बना कर देवी पूजी गई।

    केवल आवश्यकताओं पर ही पूछी गई।

    उम्र मोम सी पिघल कर जली ।

    निस दिन दीए की बाती सी घटी।

    ताउम्र लपटों सी जलती रही स्त्री।

    फिर भी नासूर बन के खटकती रही स्त्री।

    अपने अस्तित्व की तलाश में दर-दर भटकती रही।

    अपने ही परछाइयों से लड़ते झगड़ते कभी।

    मनोंरोग का शिकार होती रही ।

    डरती कभी सन्नाटे से,
    कभी डरावने अनजाने चेहरों से।

    अनजान अजनबी यों की भीड़ में

    पर कोई अपना सा तलाशती रही।

    सरिता सिंह गोरखपुर उत्तर प्रदेश

  • कभी कैंसर हो न किसी को

    कभी कैंसर हो न किसी को

    कभी कैंसर हो न किसी को, हम सब मिलकर इस पर सोचें
    इसके पीछे जो कारण हैं, उनको पूरी तरह दबोचें।

    जो होता है इससे पीड़ित, उसकी हम समझें लाचारी
    बीत रही उसके घर पर जो, किस्मत भी रोती बेचारी
    मानव -जीवन है क्षण भंगुर, फिर क्यों होती मारा-मारी
    भ्रष्ट हुए जो लोग यहाँ पर, उनसे तो मानवता हारी

    प्रतिरोधक क्षमता के बल पर, रोगों के लक्षण को नोचें
    स्वस्थ रहें सब यही कामना, दीन- दु:खी के आँसू पोछें।

    आज रेडियोधर्मी किरणें, बढ़ा रहीं प्रदूषण भारी
    खान-पान में हुई मिलावट, इसीलिए होती बीमारी
    अपनापन मिट गया यहाँ से, कुटिल नीति की है बलिहारी
    मानव-मूल्य हुए अब धूमिल, सिसक रही कोई दुखियारी

    गए लड़खड़ा जीवन के पग,मानो उनमें आयीं मोचें
    मिल न सके जब साथ किसी का, पड़ें झेलना हाय बिलोचें।

    पीते हैं गोमूत्र लोग कुछ, और पपीता भी हितकारी
    तम्बाकू से बचें आज हम, इसमें छिपी बुराई सारी
    आज सभी से बोलें मिलकर, ऐसी वाणी प्यारी-प्यारी
    मिट जाए संताप सभी का,अपनी दुनिया हो अब न्यारी

    नहीं बिताएँ समय व्यर्थ में, नहीं लड़ाएँ अपनी चोचें
    बातों से जो करता घायल, उसको खुद भी लगी खरोचें।

    रचनाकार-

    उपमेन्द्र सक्सेना एड.
    ‘कुमुद- निवास’
    बरेली (उ. प्र.)