Author: कविता बहार

  • हे मेहनतकशों  इन्हें पहचान /राजकुमार मसखरे

    हे मेहनतकशों इन्हें पहचान /राजकुमार मसखरे

    हे मेहनतकशों इन्हें पहचान /राजकुमार मसखरे

    हे मेहनतकशों इन्हें पहचान /राजकुमार मसखरे

    कितने राजनेताओं के सुपुत्र
    सरहद में जाने बना जवान !
    कितने नेता हैं करते किसानी
    ये सुन तुम न होना हैरान !
    बस फेकने, हाँकने में माहिर
    जनता को भिड़ाने में महान !


    भाषण में राशन देने वाले
    यही तो है असली शैतान !
    किसान के ही अधिकतर बेटे
    सुरक्षा में लगे हैं बंदूक तान !
    और खेतों में हैअन्न उपजाता
    कंधे में हल है इनकी शान !
    इन नेता जी के बेटों को देखो
    कई के ठेके,कीमती खदान !


    संगठन में हैं कितने काबिज़
    रंगदारी के हैं लाखों स्थान !
    बस ये नारा लगाते हैं फिरते
    जय जवान , जय किसान !
    किसान, मजदूर, जवान ही तो
    ये ही हैं धरती के भगवान !
    कुर्सी के लिए लड़ने वालों को
    हे मेहनतकशों !इन्हें पहचान!

    — *राजकुमार मसखरे*

  • सपना हुआ न अपना

    सपना हुआ न अपना

    बचपन में जो सपने देखे, हो न सके वो पूरे,
    मन को समझाया, देखा कि, सबके रहे अधूरे!
    उडूं गगन में पंछी बनकर, चहकूं वन कानन में,
    गीत सुरीले गा गा   कर, आनन्द मनाऊं मन में!
    मां ने कहा, सुनो, बेटा, तुम, चाहो अगर पनपना
    नहीं, व्यर्थ के सपने देखो, सपना हुआ न अपना

    सुना पिताजी ने, जब मेरे, सपने की सब बातें,
    मुझसे कहा, नहीं, सपने के लिए, बनी हैं रातें!
    दिन में, अथक परिश्रम करना, रातों को आराम,
    खुद को तुम तैयार करो, असल यही है काम!
    जीवन मंत्र, गूढ़ रहस्य है, सोने को ज्यों तपना,
    नहीं, व्यर्थ के सपने देखो, सपना हुआ न अपना!

    पद्म मुख पंडा,
    ग्राम महा पल्ली डाकघर लोइंग

  • प्रेम में पागल हो गया

    प्रेम में पागल हो गया

    रूप देख मन हुआ प्रभावित,
    हृदय घायल हो गया।
    सुंदरी क्या कहूं मैं,
    तेरे प्रेम में पागल हो गया।

    भूल गया स्वयं को,
    नयनों में बसी छवि तेरी।
    हृदयाकांक्षा एक रह गई,
    बाहों में तू हो मेरी।

    नर शरीर मैंने त्याग दिया,
    जीवन की आशा है तू ही तू।
    तेरे प्रेम की कविता,
    तेरे प्रेम की ग़ज़ल लिखूं।

    कवि विशाल श्रीवास्तव
    जलालपुर फ़र्रूख़ाबाद।

  • संस्कार नही मिलता दुकानों में-परमानंद निषाद “प्रिय”

    संस्कार नही मिलता दुकानों में – परमानंद निषाद “प्रिय”

    माता-पिता से मिले उपहार।
    हिंद देश का है यह संस्कार।
    बुजुर्गो का दर्द समझते नहीं
    नहीं जानते संस्कृति- संस्कार।


    संस्कार दिये नहीं जाते है।
    समाज के भ्रष्टाचारों से।
    संस्कार हमको मिलता है।
    माता-पिता,घर-परिवार से।


    बुजुर्गो का सम्मान धर्म हमारा।
    उनकी सेवा करना कर्म हमारा।
    संस्कार नही मिलता दुकानों में
    यह मिलता अच्छे संस्कारों में।


    बुजुर्गो के सही हो रहे हैँ जुबानी।
    संस्कृति-संस्कारों की सच्ची कहानी।
    मोबाइल,टी.वी. में सब डूब गये।
    संस्कृति-संस्कारों को सब भूल गये।


    संस्कारों से मिले माँ-बाप को सम्मान।
    सभी करते जिनका सदा गुणगान।
    हमारे पास जितने गुण आते।
    संस्कारों से ही सदा मिलते जाते।


    हमारे जीवन में , संस्कार ही कुंजी।
    जिससे हमें मिले सफलता की पुंजी।
    जिस किसी के पास संस्कृति संस्कार।
    उसका जीवन हो सदा सुखमय सार।

    परमानंद निषाद “प्रिय”
    ग्राम- निठोरा,पो.- थरगांव
    तह.- कसडोल,जिला- बलौदा बाजार (छ.ग.) पिन 492112
    मोब.- 7974389033
    8435298085
    ईमेल- [email protected]

  • अंकुर-रामनाथ साहू ” ननकी “

    अंकुर


    अंकुर आया बीज में , लेता नव आकार ।
    एक वृक्ष की पूर्णता , देखे सब संसार ।।
    देखे सब संसार , समाहित ऊर्जा भारी ।
    अर्ध खुले हैं नैन , प्रकृति अनुकूलन सारी ।।
    कह ननकी कवि तुच्छ , प्रगट होने को आतुर ।
    नई सृष्टि आभास , बीज को देता अंकुर ।

    अंकुर होते हैं खुशी , सपने लिए हजार ।
    नई कई संभावना , होते अंगीकार ।।
    होते अंगीकार , योजना सुखद बनाते ।
    आपस में विश्वास , लक्ष्य को साध दिखाते ।
    कह ननकी कवि तुच्छ ,प्रीत बढ़ता प्रति अंगुर ।
    नित्यकर्म आनंद , मनुज मन होता अंकुर ।।

    अंकुर देखे जब कृषक , सपना पले हजार ।
    होगी फसलें जब खड़ी , अच्छा हो व्यापार ।।
    अच्छी हो व्यापार ,कर्ज सब चुकता होता ।
    खुशियों की बरसात , श्रमिक मन लेता गोता ।।
    कह ननकी कवि तुच्छ ,लगे जीवन क्षण भंगुर ।
    फिर भी दिखते रोज ,स्वप्न के अनगिन अंकुर ।।


    —– रामनाथ साहू ” ननकी “
    ….मुरलीडीह